Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, २८४.] कालाणुगमे असुह-ति-लेस्सियकालपरूवणं
[ ४५५ अचक्खुदसणीसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था ति ओघं ॥२८० ॥
कुदो ? अचक्खुदंसणविरहिदसावरणजीवाणुवलंभा। ओधिदंसणी ओधिणाणिभंगों ॥ २८१ ॥ केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ २८२ ॥ एदाणि दोवि सुत्ताणि अवहारिदणाणाणुवादाणं सुगमाणि ।
एवं दंसणमग्गणा समत्ता । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिय-णीललेस्सिय-काउलेस्सिएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ २८३ ॥
कुदो ? सव्वकालं तिलेस्सियमिच्छादिट्ठीगं विरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥२८४ ॥
अचक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तकका काल ओघके समान है ॥ २८० ॥
क्योंकि, अचक्षुदर्शनसे रहित सावरण जीव नहीं पाये जाते हैं । अवधिदर्शनी जीवोंका काल अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ २८१ ॥ केवलदर्शनी जीवोंका काल केवलज्ञानियोंके समान है ॥ २८२ ॥
ज्ञानमार्गणाके कालानुवादका अवधारण करनेवाले शिष्योंके लिए ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं।
इस प्रकार दर्शनमार्गणा समाप्त हुई। लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥२३॥
क्योंकि, सर्वकाल ही तीनों अशुभ लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीवोंके विरहका अभाव है।
एक जीवकी अपेक्षा तीनों अशुभ लेश्यावाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥२८४॥
१ अचक्षुर्दशनिघु मिथ्यादृष्टयादिक्षीण कषायान्ताना सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८. २ अवधि-केवलदर्शनिनोरवाधि-केवलज्ञानिवत् । स. सि. १, ८. ३ लेश्यानुवादेन कृष्णनीलकापोतलेश्याम मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. ४ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८.
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