Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४६४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ५, २९३. तं पि कधं णबदे ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागब्भाहयवेसागरोवममेत्ता सोहम्मीसाणे मिच्छाइट्ठि-आउट्ठिदी होदि ति आइरियपरंपरागदोवदेसा । अधवा अण्णेणुवएसेण अड्डाइज्जसागरोवमाणि देखणाणि मिच्छादिहिस्स वि संभवंति, भवणादिसहस्सारंतदेवेसु मिच्छाइद्विस्स दुविहाउट्ठिदिपरूवणण्णहाणुववत्तीदो ।
असंजदसम्मादिहिस्स उच्चदे- एक्को असंजदो सोहम्मीसाणदेवेसु वे सागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूणं सागरोवमस्स अद्धं च आउवं करिय अंतोमुहुत्तं तेउलेस्सी होदण कमेण कालं करिय सोहम्मे उववण्णो । सगढिदिमच्छिय पुणो मणुसेसुववन्जिय अंतोमुहुत्तं तीए चेव लेस्साए परिणमिय पम्मलेस्सं काउलेस्सं वा गदो । लद्धाणि अंतोमुहुत्तणअड्डाइजसागरोवमाणि संपुण्णाणि । अहियाणि वा किण्ण होति त्ति उत्ते ण, पुवावरकालम्हि लद्धअंतोमुहुत्तादो अद्धसागरोवमम्हि पडिदंतोमुहुत्तस्स बहुत्तुवदेसा।
__पम्मलेस्साए उच्चदे- एको मिच्छादिट्ठी वड्डमाणतेउलेस्सिओ सगद्धाए खीणाए
शंका-यह भी कैसे जाना जाता है ?
समाधान-पल्योपमके असंख्यातवें भागसे अधिक दो सागरोपमप्रमाण सौधर्मईशानकल्पमें मिथ्यादृष्टिकी आयुस्थिति होती है। इस प्रकारका आचार्यपरम्परागत उपदेश है अथवा अन्य उपदेशसे कुछ कम अढ़ाई सागरोपमकाल सौधर्म-ईशानकल्पवासी मिथ्यादृष्टि देवके भी संभव है, अन्यथा, भवनवासियोंसे लगाकर सहस्रारकल्प तकके देवों में मिथ्यादृष्टि जीवके दो प्रकारकी आयुस्थितिकी प्ररूपणा हो नहीं सकती थी।
_अब असंयतसम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट तेजोलेश्याके कालको कहते हैं- एक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सौधर्म ऐशान देवोंमें दो सागरोपम और अन्तर्मुहूर्त कम सागरोपमके अर्घ भागप्रमाण आयुको बांध करके एक अन्तर्मुहूर्त तेजोलेश्यावाला हो करके और क्रमसे मर कर सौधर्मकल्पमें उत्पन्न हुआ। पुनः अपनी आयुस्थिति तक वहां रह कर और मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त तक उसी ही लेश्यासे परिणत हो, पद्मलेश्या या कापोतलेश्याको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे अन्तर्मुहूर्त कम पूरा अढाई सागरोपमकाल प्राप्त हो गया।
शंका-अन्तर्मुहूर्तसे कम अढ़ाई सागरोपमकालसे अधिक काल क्यों नहीं होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अढ़ाई सागरोपमकालके आदि और अन्तमें लब्ध होनेवाले अन्तर्मुहूर्तसे अर्ध सागरोपम कालमें पतित अन्तर्मुहूर्तके बहुत्यका उपदेश पाया जाता है।
अब पद्मलेश्याके उत्कृष्ट कालको कहते हैं-- वर्धमान तेजोलेश्यावाला कोई एक
१ प्रतिषु · देवीम् ' इति पाठः ।
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