Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४५८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ५, २८६. ___णीललेस्साए उच्चदे- काउलेस्साए अच्छिदस्स णीललेस्सा आगदा । तत्थ दीहमंतोमुहुत्तमच्छिदूण पंचमीए पुढवीए उववण्णो। तत्थ सत्तारस सागरोवमाणि ताए लेस्साए गमिय उववट्टिदो । उववट्टिदस्स वि अंतोमुहुत्तं सा चेव लेस्सा होदि । एवं दोहि अंतोमुहुत्तेहि सादिरेयाणि सत्तारस सागरोवमाणि णीललेस्साए उक्कस्सकालो होदि ।।
___ काउलेस्साए उच्चदे- तेउलेस्साए अच्छिदस्स सगद्धाए खीणाए काउलेस्ता आगदा । तत्थ दीहमंतोमुहुत्तमच्छिय तदियाए पुढवीए उववण्णो । तीए लेस्साए सत्त सागरोवमाणि तत्थ गमिय उववहिदो। उववट्टिदस्स वि सा चेव लेस्सा अंतोमुहुत्तं होदि । एवं दोहि अंतोमुहुत्तेहि सादिरेयाणि सत्त सागरोवमाणि काउलेस्साए उक्कस्सकालो होदि।
सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥२८६ ॥ __ कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगो समओ, उक्कस्सण रासीदो असंखेज्ज. गुणो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगो समओ, उक्कस्सेण छ आवलियाओ, एदेहि तिलेस्सागदसासणाणं तदो भेदाभावा ।
अब नीललेश्याका काल कहते हैं- कापोतलेश्यामें वर्तमान जीवके नीललेश्या आ गई । उसमें उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रह करके वह जीव पांचवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। वहां पर सत्तरह सागरोपम काल उस लेश्याके साथ बिताकर निकला। निकलने पर भी अन्तर्मुहूर्त तक वही ही लेश्या होती है। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूतौसे अधिक सत्तरह सागरोपम नीललेश्याका उत्कृष्ट काल होता है।
___ अब कापोतलेश्याका उत्कृष्ट काल कहते हैं- तेजोलेश्यामें विद्यमान किसी जीवके उस लेश्याके कालके क्षीण हो जाने पर कापोतलेश्या आगई। उसमें उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रह कर मरण करके तृतीय पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। वहां पर उसी लेश्याके साथ सात सागरोपम काल बिताकर निकला। निकलने के पश्चात् भी वही लेश्या अन्तर्मुहूर्त तक रहती है। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्तोंसे अधिक सात सागरोपम कापोतलेश्याका उत्कृष्ट काल होता है।
उक्त तीनों अशुभ लेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २८६ ॥
__क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय, उत्कर्षसे अपनी राशिसे असंख्यातगुणा पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह आवलीप्रमाण काल है। इस प्रकारसे तीनों अशुभ लेश्याओंको प्राप्त हुए सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके कालका ओघसे कोई भेद नहीं है।
१ सासादनसम्यग्दृष्टि-सम्यग्मिण्यादृष्टयोः सामान्योक्तः कालः । स. सि. १, ८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org