Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 564
________________ १, ५, २६९.] कालाणुगमे संजदकालपरूवर्ण [४५१ संतकम्मिओ सण्णिसम्मुच्छिमपज्जत्तएसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो विस्संतो विसुद्धो संजमासंजम पडिवज्जिय मदि-सुदणाणी जादो । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण ओधिणाणमुप्पादेदि । एत्तिओ चेव विसेसो, णत्थि अणत्थ कत्थ वि ।। मणपज्जवणाणीसु पमत्तसंजद पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ २६७ ॥ कुदो ? पमत्तापमत्तसंजदाणमुवसामगाणं खवगाणं च णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालेहि ओघादो भेदाभावा । केवलणाणीसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली ओघं ॥ २६८ ॥ कुदो ? केवलणाणविरहिदसजोगि-अजोगिकेवलीणमभावा । एवं णाणमग्गणा समत्ता। संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ २६९ ॥ अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला कोई एक जीव संझी, सम्मूछिम, पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ और छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त हो, विश्राम करता हुआ, विशुद्ध होकर, संयमासंयमको प्राप्त कर, मति श्रुतज्ञानी हो गया। पुनः अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् अवधिज्ञानको उत्पन्न करता है। इतनी मात्र ही विशेषता है और कहीं भी कोई विशेषता नहीं है। मनःपर्ययज्ञानियों में प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २६७ ॥ क्योंकि, प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका तथा उपशामक और क्षपकोंका नाना जीव और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट कालोंके साथ ओघप्ररूपणासे कोई भेद नहीं है। केवलज्ञानियोंमें सयोगिकेवली और अयोगिकेवली जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २६ ॥ क्योंकि, केवलज्ञानसे रहित सयोगिकेवली और अयोगिकेवलियोंका अभाव है। इस प्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई। संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें प्रमत्तसंयतसे लेकर अयोगिकेवली तक जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २६९ ॥ . १ प्रतिषु ओधिणाणीमुप्पादेदि' इति पाठः । २ संयमानुवावेन सामायिक च्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यात शुद्धिसंयताना xx मामा. न्योक्तः कालः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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