Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, २६४.] कालाणुगमे विभंगणाणिकालपरूवणं
[११९ कुदो ? णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणमिच्चेएण ओघादो भेदाभावा । अणादिअणिहण-अणादिसणिणअण्णाणेसु मदि-सुदअण्णाणी वि अत्थि, किंतु तेहि एत्थ अणहियारो ।
सासणसम्मादिट्ठी ओघं ॥ २६१ ॥ कुदो ? मदि-सुदअण्णाणविरहिदसासणाणमभावा ।
विभंगणाणीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥२६२ ॥
कुदो ? विभंगणाणिमिच्छादिट्ठीणं तिसु वि कालेसु संताणवोच्छेदाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥ २६३ ॥
कुदो ? असंजदसम्मादिद्विस्स संजदासंजदस्स वा दिट्ठमग्गस्स मिच्छत्तं पडिवजिय सवजहण्णद्धमच्छिय गुणंतरं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तविभंगणाणकालुवलंमा ।
उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ २६४ ॥
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क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। इस प्रकारसे ओघके कालसे कोई भेद नहीं है। यद्यपि अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त अज्ञानोंमें मत्यज्ञानी और श्रुताशानी भी जीव हैं, किन्तु उनका यहां पर अधिकार नहीं है।
मति-श्रुताज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २६१ ॥ क्योंकि, मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानसे रहित सासादनगुणस्थानी जीवोंका अभाव है।
विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २६२॥
क्योंकि, तीनों ही कालोंमें विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीवोंकी परम्पराके व्युच्छेदका अभाव है।
एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २६३ ॥
क्योंकि, दृष्टमार्गी असंयतसम्यग्दृष्टि या संयतासंयतके मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होकर और सर्व जघन्य काल तक वहां रह कर गुणस्थानान्तरको गये हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण विभंगज्ञानका काल पाया जाता है।
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है ॥ २६४ ॥ र विभंगज्ञानिषु मिथ्यादृष्टेनीनाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८.
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