Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 557
________________ __ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २४९. अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघं ॥ २४९॥ . कुंदो ? णाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालेहि ओघादो विसेसाभावा । __ एवं वेदमग्गणा समत्ता । कसायाणुवादेण कोहकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति मणजोगिभंगों ॥२५०॥ कुदो ? दव्वट्ठियणयावलंबणेण । पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो। तं वत्तइस्सामो । तं जधा- कोधकसाई मिच्छादिट्ठी एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । एत्थ कसाय-गुणपरावत्ति-मरणेहि एगसमओ वत्तव्यो । वाघादेण एगसमओ ण लब्भदि, कोधस्सेव तत्थुप्पत्तीदो। तं जधा-एको सासणो सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदो पमत्तसंजदो वा कोधकसाई एगसमयं कोधकसायद्धा अत्थि त्ति मिच्छत्तं गदो । एगसमयं कोधेण मिच्छत्तं दिटुं । विदियसमए अण्णकसायं गदो । एसा कसायपरावत्ती । अपगतवेदी जीवोंमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अवेदभागसे लेकर अयोगिफेवली गुणस्थान तकके जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २४९ ।।। क्योंकि, नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट कालके साथ ओघसे कोई विशेषता नहीं है। ___ इस प्रकार घेदमार्गणा समाप्त हुई । __कषायमागणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकरायी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत तकका काल मनोयोगियोंके समान है ।। २५०॥ ... क्योंकि, सूत्र में द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन किया गया है। किन्तु पर्यायार्थिकनयके अवलम्बन करने पर विशेषता है। उसे कहते हैं। जैसे- क्रोधकषायी मिथ्यादृष्टि जीवका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है। यहां पर कषायपरिवर्तन, गुणस्थानपरिवर्तन मौर मरणके द्वारा एक समयकी प्ररूपणा कहना चाहिए । व्याघातकी अपेक्षा एक समय नहीं पाया जाता है, क्योंकि, व्याघातके होने पर तो क्रोधकी ही उत्पत्ति होती है। मैसे-कोई सासादनसम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि, या असंयतसम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत क्रोधकषायी जीव क्रोधकषायके कालमें एक समय अवशेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। एक समय क्रोधके साथ मिथ्यात्व दृष्टिगोचर हुआ, मौर द्वितीय समयमें किसी और कषायको प्राप्त हो गया । यह कषायपरिवर्तनसम्बन्धी एक १ अपगतवेदानां सामान्यवत् । स. सि. १,८. पायानुवादेन चतुष्कषायाणां मिथ्यादृष्टयाचप्रमत्तान्ताना मनोयोगिवत् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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