Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ४, ४.] फोसणाणुगमे सासणसम्माइडिफोसणपरूवणं पुढविपरिणाम-विमाण-तल-सिला-थंभ-थूभेतल-उब्भसालहंजिया-कुड्ड-तोरणादणं तदुप्पत्ति. जोगाणं दंसणादो च । उववादगदेहि देसूणेक्कारह चोदसभागा फोसिदा । तं जहा- हेट्ठा जाव छट्ठी पुढवि त्ति पंच रज्जू , उवरि जाव आरण-अच्चुदकप्पो त्ति छ रज्जू, आयामो वित्थारो च एगरज्जू , एदं उववादखेत्तपमाणं । के वि आइरिया ‘देवा णियमेण मूलसरीरं पविसिय मरंति' ति भणति, तेसिमभिप्पारण दस-चोदसभागा देसूणा । एदं वक्खाणमेत्थेव कम्मइयसरीरसासणउववादफोसणस्स एक्कारह-चोद्दसभागपरूवयसुत्तेण विरुद्धं ति ण घेत्तव्यं । जे पुण देवसासणा एइंदिएसुप्पज्जंति त्ति भणति, तेसिमभिप्पारण वारह चोदसभागा देसूणा उववादफोसणं होदि', एवं पि वक्खाणं संत-दव्यसुत्तविरुद्धं ति ण घेत्तव्यं ।
तैजसकायिक और वायुकायिक जीवों में मारणान्तिकसमुद्धातका अभाव माना गया है । और पृथिवीके विकाररूप विमान, शय्या, शिला, स्तम्भ और स्तूप, इनके तलभाग, तथा खड़ी हुई शालभंजिका (मिट्टी आदिकी पुतली) भित्ति और तोरणादिक उनकी उत्पत्तिके योग्य देखे जाते हैं।
उपपाद्गत सातादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने लोकके कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भाग (१४) स्पर्श किए है। वह इसप्रकार हैं-मेरुतलसे नीचे छठी पृथिवी तक पांच राजु होते हैं, ऊपर आरण-अव्युतकल्प तक छह राजु होते हैं और आयाम तथा विस्तार एक राजु है। इस प्रकार ग्यारह राजु उपपादक्षेत्रका प्रमाण है।
कितने ही आचार्य ऐसा कहते हैं कि देव नियमसे मूलशरीरमें प्रवेश करके ही मरते हैं। उनके अभिप्रायसे सासादनगुणस्थानवर्ती देवोंका उपपादसम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र कुछ कम दस बटे चौदह भाग (१४) प्रमाण होता है। किन्तु यह व्याख्यान यहीं पर विग्रहगतिको प्राप्त कार्मणशरीरवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके उपपाद-स्पर्शनके ग्यारह बटे चौदह (१४) भागके प्ररूपक सूत्रके साथ विरोधको प्राप्त होता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए। और जो ऐसा कहते हैं कि सासादनसम्यग्दृष्टि देव, एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, उनके अभिप्रायसे कुछ कम बारह बटे चौदह (१४ ) भाग उपपादपदका स्पर्शन होता है । किन्तु यह भी व्याख्यान सत्प्ररूपणा और द्रव्यानुयोगद्वारके सूत्रोंके विरुद्ध पड़ता है, इसलिए उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए।
१ प्रतिषु 'थूलतलंउभ' इति पाठः।। २ अथवा येषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादश भागा म दत्ताः। ३जी. सं. सू. ३६. । जी. ६. सू. ७४.७६.
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