Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३३६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ५, १. ण, एक्कम्हि समए पिंडागारेण विण?-घडाकारेणुप्पण्ण-मट्टियदव्वस्सुवलंभा। सव्वजहण्णमंतामुहुत्तमुवसमसम्मत्तद्धाए अच्छिदूण मिच्छत्तं गदो। तदो मिच्छत्तेण सादिओ जादो, विणट्ठो सम्मत्तपज्जाएण । तदो मिच्छत्तपज्जाएण उबड्डपोग्गलपरियÉ परियट्टिदण अपच्छिमे भवग्गहणे मणुस्सेसु उववण्णो । पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे तिण्णि वि करणाणि कादूण पढमसम्मत्तं पडिवण्णो (२)। तदो वेदगसम्मादिट्ठी जादो (३)। अंतो. मुहुत्तेण अणंताणुबंधिं विसंजोएदूण (४) तदो दंसणमोहणीयं खवेदूग (५) पुणो अप्पमत्तो जादो (६)। पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (७) खवगसेढिमारुहमाणो अप्पमत्तसंजदट्ठाणे अधापवत्तविसाहीए विसुज्झिदूण (८) अपुधकरणखवगो (९) अणियट्टिखवगो (१०) सुहुमखवगो (११) खीणकसाओ (१२) सजोगी (१३) अजोगी होदण सिद्धो जादो (१४)। एवमेदेहि चोहसेहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियह सादिसपज्जवसिदमिच्छत्तकालो होदि ।
मिच्छत्तं णाम पज्जाओ । सो च उप्पाद-विणासलक्खणो, द्विदीए अभावादो। अह जइ तस्स हिदी वि इच्छिज्जदि, तो मिच्छत्तस्स दव्यत्तं पसज्जदे; 'उप्पाद-हिदि-भंगा हंदि
समाधान-नहीं, क्योंकि, जैसे एक ही समयमें पिण्डरूप आकारसे विनष्ट हुआ और घटरूप आकारसे उत्पन्न हुआ मृत्तिकारूप द्रव्य पाया जाता है; उसी प्रकार कोई जीव सबसे कम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उपशमसम्यक्त्वके कालमें रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस. लिए मिथ्यात्वसे वह आदि सहित उत्पन्न हुआ और सम्यक्त्वपर्यायसे विनष्ट हुआ। तत्पश्चात् मिथ्यात्वपर्यायसे कुछ कम अर्धपुदलपरिवर्तनप्रमाण संसारमें परिभ्रमण कर, अन्तिम भवके ग्रहण करने पर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। पुनः अन्तर्मुहूर्तकाल संसारके अवशेष रह जाने पर तीनों ही करणोंको करके प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (२) । पुनः वेदकसम्यग्दृष्टि हुआ (३)। पुनः अन्तर्मुहूर्तकालद्वारा अनंतानुबंधी कषायका विसंयोजन करके (४), उसके बाद दर्शनमोहनीयका क्षय करके (५), पुनः अप्रमत्तसंयत हुआ (६) । फिर प्रमत्त और अप्रमत्त, इन दोनों गुणस्थानीसम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनोंको करके (७), क्षपकश्रेणीपर चढ़ता हुआ अप्रमत्तसंयतगुणस्थानमें अधःप्रवृत्तकरणीवशुद्धिसे शुद्ध होकर (८), अपूर्वकरण क्षपक (९), अनिवृत्तिकरण क्षपक (१०), सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक (११), क्षीणकषायवीतरागछन्नस्थ (१२), सयोगिकेवली (१३). और अयोगिकेवली होता हुआ सिद्ध हो गया (१४)। इस प्रकार इन चौदह अन्तर्मुहूतोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण सादि और सान्त मिथ्यात्वका काल होता है।
शंका-मिथ्यात्व नाम पर्यायका है। वह पर्याय उत्पाद और विनाश लक्षणवाला है, क्योंकि, उसमें स्थितिका अभाव है। और यदि उसकी स्थिति भी मानते हैं, तो मिथ्यात्वके द्रव्यपना प्राप्त होता है, क्योंकि, 'उत्पाद, स्थिति और भंग, अर्थात् व्यय, ही द्रव्यका लक्षण है'
१ देसूणमद्धपोग्गलपरियट्टमुवडपोग्गलपरियमिदि मण्णदे । जयध.
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