Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३७० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ५, ६२. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ६२ ॥
कुदो ? मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी संजदासजदो वा विसोहि-संकिलेसवसेण असंजदसम्मादिट्ठी होद्ग सधजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय अविणट्ठसंकिलेस-विसोहीहि पडिवण्णगुणतरस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो।। __उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि, तिण्णि पलिदोवमाणि, तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥ ६३ ॥
पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ताणं संपुण्णाणि तिण्णि पलिदोवमाणि । कुदो ? मणुस्सस्स बद्धतिरिक्खाउअस्स सम्मत्तं घेत्तूण दंसणमोहणीयं खविय देवुत्तरकुरुपंचिंदियतिरिक्खेसुववज्जिय अप्पणो आउहिदिमणुपालिय देवेसुप्पण्णस्स संपुण्णतिण्णिपलिदोवममेत्तसासंजमसम्मत्तकालुवलंभादो । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु देसूणतिण्णिपलिदोवमाणि । कुदो ? तिरिक्खस्स मणुस्सस्स वा अट्ठावीससंतकम्मियमिच्छादिहिस्स देवुत्तरकुरुपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु उप्पज्जिय वे मासे गब्भे अच्छि दूण णिक्खंतस्स मुहुत्तपुधत्तेण विसुद्धो होदूण वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय मुहुत्तपुधत्तब्भहिय-वे-मासूणतिण्णि
एक जीवकी अपेक्षा उक्त तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ६२॥
___ क्योंकि, कोई मिथ्यादृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा संयतासंयत तिर्यंच यथाक्रमसे विशुद्धि, अथवा संक्लेशके वशसे असंयतसम्यग्दृष्टि होकर सबसे कम अन्तर्मुहूर्त काल रह कर, अविनष्ट संक्लेश और विशुद्धिके साथ यथाक्रमसे दूसरे गुणस्थानको प्राप्त हुआ, ऐसे जीवके अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है।
उक्त तीनों पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल यथाक्रमसे तीन पल्योपम, तीन पल्योपम और कुछ कम तीन पल्योपम है॥ ६३ ॥
पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंका सम्पूर्ण तीन पल्योपम उत्कृष्ट काल है, क्योंकि, बद्धतिर्यगायुष्क मनुष्यके, सम्यक्त्वको ग्रहण करके, दर्शनमोहनीयका क्षपण कर, देवकुरु या उत्तरकुरुके पंचेन्द्रिय तिर्यचोंमें उत्पन्न होकर, अपनी आयुस्थितिको परिपालन कर, देवों में उत्पन्न होनेवाले जीवके तो सम्पूर्ण तीन पल्योपममात्र असंयमसहित सम्यक्त्वका काल पाया जाता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में कुछ कम तीन पल्योपम काल है । क्योंकि, मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीवके देवकुरु अथवा उत्तरकुरुके पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में उत्पन्न होकर, और दो मास गर्भमें रहकर, जन्म लेनेवाले, और मुहूर्तपृथक्त्वसे विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको
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