Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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५१८] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, ५, १७९. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १७९ ॥
एत्थ मरण-गुण-जोगपरावत्तीहि एगसमयो परूवेदव्यो । वाघादेण एगसमओ ण लब्भदि, तस्स कायजोगाविणाभावित्तादो ।
उक्कस्सेण वावीसं वाससहस्साणि देसूणाणि ॥ १८० ॥
तं जधा- एगो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा वावीससहस्सवासाउद्विदिएसु एइदिएसु उववण्णो। सव्वजहण्णेण अंतोमुहुत्तकालेण पज्जत्तिं गदो। ओरालियअपज्जत्तकालेणूणवावीसवाससहस्साणि ओरालियकायजोगेण अच्छिय अण्णजोगं गदो । एवं देसूणवावीसवाससहस्साणि जादाणि । अधवा देवो ण उप्पादेदव्यो, तस्स जहण्णअपजत्तकालाणुवलंभा।
सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति मणजोगिभंगो ॥ १८१ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो, पुव्वं परूविदत्तादो । णवरि वाघादेण एत्थ एगसमयपरूवणा परूवेदव्वा ।
एक जीवकी अपेक्षा औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टियोंका जघन्य काल एक समय है ॥ १७९॥
यहां पर मरण, गुणस्थानपरावर्तन और योगपरावर्तनकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा करनी चाहिए | किन्तु यहां पर व्याघातकी अपेक्षा एक समय नहीं पाया जाता है, क्योंकि, वह काययोगका अविनाभावी है।
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है ॥ १८० ॥
जैसे-एक तिर्यंच, मनुष्य, अथवा देव, बाईस हजार वर्षकी आयुस्थितिवाले एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्तकालसे पर्याप्तपनेको प्राप्त हुआ। पुनः इस
औदारिकशरीरके अपर्याप्तकालसे कम बाईस हजार वर्ष औदारिककाययोगके साथ रह करके पुनः अन्य योगको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे कुछ कम बाईस हजार वर्ष हो जाते हैं। अथवा, यहां पर देव नहीं उत्पन्न कराना चाहिए, क्योंकि, देवोंसे आकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले जीवके जघन्य अपर्याप्तकाल नहीं पाया जाता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक औदारिककाययोगियोंका काल मनोयोगियोंके कालके समान है ॥१८१ ॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि, पूर्वमें कहा जा चुका है। विशेष बात यह है कि यहां पर व्याघातकी अपेक्षा एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए ।
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