Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१२८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ५, २०३. गुणिदे पलिदोक्मस्स असंखेजदिमागमेत्तो वेउब्धियमिस्सकालो होदि । असंजदसम्मादिहीणं पि एवं चेव वत्तव्यं । णवरि एदे एगसमएण पलिदोवमस्स असंखेज्जादभागमेत्तो उक्कस्सेण उप्पज्जंति, रासीदो वेउव्वियमिस्सकालो असंखेज्जगुणो। तं कधं णव्वदे? आइरियपरंपरागदुवदेसादो । देवलोए उप्पज्जमाणसम्मादिट्ठीहिंतो देव-णेरइएसु उप्पज्जमाणमिच्छादिट्ठी असंखेज्जसेढिगुणिदमेत्ता होति त्ति कालो वि तावदिगुणो किण्ण होदि त्ति वुत्ते, ण होदि, उहयत्थ वेउब्बियमिस्सद्धासलागाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुवदेसा ।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥ २०३॥
तं जधा-एक्को दव्वलिंगी उवरिमगेवेज्जेसु दो विग्गहे कादृण उबवण्णो, सबलहुमंतोमुहुत्तेण पज्जत्तिं गदो । सम्मादिट्ठी एको संजदो सबट्टदेवेसु दो विग्गहे कादूण उववण्णो, सव्वलहुमंतोमुहुत्तेण पजत्तिं गदो ।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंकी शलाकाएं पाई जाती हैं । इनसे वैक्रियिकमिश्रकाययोगके कालको गुणा करने पर पत्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण वैक्रियिकमिश्रकाययोगका काल होता है। असंयतसम्यग्दृष्टियोंका भी काल इसी प्रकारसे कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि ये असंयतसम्यग्दृष्टि जीव एक समय में पल्योपमके असंख्यातवें भाग. मात्र उत्कृष्टरूपसे उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, इस उत्पन्न होनेवाली राशिसे वैक्रियिकामिश्रकाययोगका काल असंख्यातगुणा है।
शंका-यह कैसे जाना?
समाधान-आचार्यपरम्परागत उपदेशसे जाना जाता है कि एक समयमें उत्पन्न होनेवाली असंयतसम्यग्दृष्टिराशिसे उक्त काल असंख्यातगुणा है।
शंका-देवलोकमें उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दृष्टियोंसे देव या नारकियों में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात श्रेणियों से गुणितप्रमाण होते हैं। इसलिए वैक्रियिकमिश्रका काल भी असंख्यात श्रेणिगुणित क्यों नहीं होता है ? ।
समाधान-ऐसी आशंका पर उत्तर देते है कि नहीं होता है, क्योंकि, दोनों ही स्थानों पर, अर्थात् मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में, वैकि. यिकमिश्रकालकी शलाकाओंके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होने का उपदेश है।
एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ।। २०३ ॥
एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम प्रैवेयकों में दो विग्रह करके उत्पन्न हुआ और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तके द्वारा पर्याप्तपनेको प्राप्त हुआ। एक सम्यग्दृष्टि भावलिंगी संयत सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों में दो विग्रह करके उत्पन्न हुआ और सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तकालसे पर्याप्तियोंकी पूर्णताको प्राप्त हुआ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org