Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, २११.] कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं
[१३१ आहारकायजोगीसु पमत्तसंजदा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २०९ ॥
तं जहा- सत्तट्ठ जणा पमत्तसंजदा मणजोगेण वचिजोगेण वा अच्छिदा सगद्धाए खीणाए आहारकायजोगिणो जादा । विदियसमए मुदा, मूलसरीरं वा पविट्ठा। लद्धो एगसमओ । एत्थ वाघाद-गुणपरावत्तीहि एगो समओ ण लन्भदि ।।
उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २१० ॥
तं जहा- आहारसरीरमुट्ठाविदपमत्तसंजदा मण-वचिजोगद्विदा आहारकायजोगिणो जादा । जाधे ते जोगतरं गदा, ताधे चेव अण्णे आहारकायजोगं पडिवण्णा । एवमेगादि एगुत्तरवड्डीए संखेज्जसलागाओ लभंति । एदाहि एगं कायजोगद्धं गुणिदे आहारकायजोगद्ध। उक्कस्सिया अंतोमुहुत्तपमाणा होदि ।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ ॥ २११॥
आहारककाययोगियोंमें प्रमत्तसंयत जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥ २०९॥
___ जैसे-सात आठ प्रमत्तसंयत मनोयोग अथवा वचनयोगके साथ वर्तमान थे। वे अपने योगकालके क्षीण हो जाने पर आहारककाययोगी हुए । द्वितीय समयमें मरे अथवा मूल
औदारिकशरीरमें प्रविष्ट हुए । इस प्रकारसे एक समयका काल उपलब्ध हो गया। यहां पर व्याघात अथवा गुणस्थानपरिवर्तनके द्वारा एक समय नहीं प्राप्त होता है।
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहते है॥ २१० ॥
जैसे- आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवाले, मनोयोग अथवा वचनयोगमें विद्यमान प्रमत्तसंयत जीव आहारककाययोगी हुर। जब वे किसी दूसरे योगको प्राप्त हुए उसी समयमें ही अन्य प्रमत्तसंयत आहारककाययोगको प्राप्त हुए। इस प्रकार एकको आदि लेकर एकोत्तर वृद्धिसे संख्यात शलाकाएं प्राप्त होती हैं । इन शलाकाओंसे एक काययोगके कालको गुणा करने पर उत्कृष्ट आहारककाययोगका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हो जाता है।
एक जीवकी अपेक्षा आहारककाययोगी जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ २११ ॥
१ प्रतिषु 'पविट्ठो' इति पाठः । २ प्रतिषु 'जादे' इति पाठः।
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