Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४०.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ५, १३९. ___ उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, सागरोवमसदपुधतं ॥ १३६ ॥
'जहा उद्देसो तहा णिदेसो' त्ति णायादो पंचिंदियाणं पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि सागरोवमसहस्साणि, पंचिंदियपज्जत्ताणं सागरोवमसदपुधत्तं । एदस्सुदाहरणं-एक्को एईदियादो विगलिंदियादो वा आगंतूण पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु उववञ्जिय सगहिदि. मच्छिय अणिदियं गदो । एकस्सेव सागरोवमसहस्सस्स सुवतन्भूदबहुत्तमवेक्खिय सागरोवमसहस्साणि ति सुत्ते बहुवयणणिद्देसो कदो।।
सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघ ॥१३७॥ कुदो ? ओघादो णाणेगजीवसासणादिकालाणं भेदाभावा । पंचिंदियअपज्जता बीइंदियअपज्जत्तभंगो ॥ १३८ ॥
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक सागरोपमसहस्र और सागरोपमशतपृथक्त्वप्रमाण है ॥ १३६ ॥
'जैसा उद्देश होता है, तथैव निर्देश होता है। इस न्यायसे सामान्य पंचेन्द्रिय जीवोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक सागरोपमसहस्र है, तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंका उत्कृष्ट काल सागरोपमशतपृथक्त्व है।
अब इन दोनों कालोंका उदाहरण कहते हैं- कोई एक जीव एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रियसे आकर पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न होकर, अपनी स्थिति तक रह कर, अन्य इन्द्रियको चला गया। यहां पर एक ही सागरोपमसहस्रके, अपने अन्तर्गत बहुत्वको देखकर 'सागरोपमसहस्र' ऐसा सूत्रमें बहुवचनका निर्देश किया गया है।
__सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तकके जीवोंका काल ओषके समान है ॥ १३७॥
क्योंकि, ओघप्ररूपणासे नाना और एक जीवसम्बन्धी सासादनादि गुणस्थानोंके कालोंमें भेदका अभाव है।
पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका काल द्वीन्द्रिय लम्ध्यपर्याप्तक जीवोंके कालके समान है ॥ १३८ ॥
१ उत्कर्षेण सागरोपमसहस्रं पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्याधिकम् । स. सि. १, ८. १शेषाण सामान्योक्तः कालः। स. सि. १,८,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org