Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, ५, १६३. ]
कालानुगमे मण- वचिजोगि काल परूवर्ण
[ ४११
सेसु वा उप्पण्णो, तो कम्मइयकायजोगी ओरालिय मिस्सकायजोगी वा । अध देव णेरइएसु जह उबवण्णो तो कम्मइयकायजोगी वेउव्वियमिस्सकायजोगी वा जादो । एवं मरणेण लद्धएगभंगे पुव्विल्लणवभंगेसु पक्खित्ते दस भंगा होंति ( १० ) । वाघादेण एक्को मिच्छादिट्ठी वचिजोगेण कायजोगेण वा अच्छिदो । तेसिं वचि कायजोगाणं खएण तस्स जोगो आगो । एगसमयं मणजोगेण मिच्छत्तं दिट्ठे । विदियसमए वाघादिदो कायजोगी जादो । लद्ध एगसमओ । एदं पुव्विल्लदसभंगेसु पक्खित्ते एक्कारस भंगा (११) । एत्थ उववज्जंती' गाहा
गुण- जोगपरावती वाघादो मरणमिदि हु चत्तारि । जोगे होंति ण वरं पच्छिल्लद्गुणका जोगे ॥ ३९॥
एदम्हि गुणट्ठाणे दिजीवा इमं गुणट्ठाणं पडिवज्जंति, ण पडिवज्जंति त्ति णादूण गुणपडवण्णा वि इमं गुणद्वाणं गच्छंति, ण गच्छंति त्ति चिंतिय असंजदसम्मादिट्ठिसंजदासंजद - पमत्त संजाणं च चउव्विहा एगसमयपरूवणा परूविदव्वा । एवमप्पमत्तंसंजदाणं । णवरि वाघादेण विणा तिविधा एगसमयपरूवणा कादव्वा । किमहं वाघादो
दूसरे समय में मरा | सो यदि वह तिर्यचों में या मनुष्यों में उत्पन्न हुआ तो कार्मणकाययोगी, अथवा औदारिक मिश्रकाययोगी हो गया । अथवा, यदि देव या नारकियों में उत्पन्न हुआ तो कार्मणकाययोगी अथवा वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हो गया। इस प्रकार मरणसे प्राप्त एक भंगको पूर्वोक्त नौ भंगों में प्रक्षिप्त करने पर दश भंग हो जाते हैं (१०) । अब व्याघात से लब्ध होनेवाले एक भंगकी प्ररूपणा करते हैं- कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव वचनयोगसे अथवा काययोग से विद्यमान था । सो उन वचनयोग अथवा काययोगके क्षय हो जाने पर उसके मनोयोग आ गया। तब एक समय मनोयोग के साथ मिथ्यात्व दृष्ट हुआ और द्वितीय समय में वह व्याघातको प्राप्त होता हुआ काययोगी हो गया । इस प्रकारसे एक समय लब्ध हुआ । पूर्वोक्त दश भंगों में इस एक भंगके प्रक्षिप्त करने पर ग्यारह भंग होते हैं (११) । इस विषय में उपयुक्त गाथा इस प्रकार है
गुणस्थान परिवर्तन, योगपरिवर्तन, व्याघात और मरण, ये चारों बातें योगों में अर्थात् तीनों योगों के होने पर होती हैं । किन्तु सयोगिकेवली के पिछले दो, अर्थात् मरण और व्याघात, तथा गुणस्थानपरिवर्तन नहीं होते हैं ॥ ३९ ॥
इस विवक्षित गुणस्थानमें विद्यमान जीव इस अविवक्षित गुणस्थानको प्राप्त होते हैं, या नहीं, ऐसा जान करके, गुणस्थानोंको प्राप्त जीव भी इस विवक्षित गुणस्थानको जाते हैं, अथवा नहीं, ऐसा चिन्तवन करके असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयतोंकी चार प्रकार से एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए । इसी प्रकार से अप्रमत्तसंयतोंकी भी प्ररूपणा होती है, किन्तु विशेष बात यह है कि उनके व्याघात के विना तीन प्रकार से एक समयकी प्ररूपणा करना चाहिए ।
१ आ-प्रतौ ' उवउज्जेती ' क-प्रतौ ' उववज्र्ज्जती ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org