Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 521
________________ उक्खंडागम जीवाणं ४०८] [१, ५, १५९. उक्कस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, वे सागरोवमसहस्साणि ॥ १५९ ॥ तं जधा- दो जीवा थावरकायादो आगंतूण एगो तसकाइएसु, अण्णेगो तसकाइयपजत्तएमु उववण्णो। तत्थ जो सो तसकाइएसु उववण्णो सो पुवकोडिपुधत्तम्भहिय. वे-सागरोवमसहस्साणि तत्थ परिभमिय थावरकायं गदो। इदरो वि वे सागरोवमसहस्सं परिभमिय थावरं गदो, एत्तो उवरि तत्थच्छणसंभवाभावा ।। सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥१६०॥ कुदो ? ओघसासणादिसयलगुणहाणाणं णाणेगजीवजहण्णुकस्सकालहितो तसकाइयतसकाइयपज्जत्तसासणादिसयलगुणट्ठाणणाणेगजीवजहण्णुक्कस्सकालाणं भेदाभावादो। तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो ।। १६१ ॥ कुदो १ णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, त्रसकायिक जीवोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटीपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम और त्रसकायिक पर्याप्तक जीवोंका उत्कृष्ट काल पूरे दो हजार सागरोपमप्रमाण है ॥ १५९ ॥ जैसे- दो जीव एक साथ स्थावरकायसे आकर एक तो सामान्य त्रसकायिक जीवों में और दूसरा त्रसकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। उनमेंसे जो सामान्य प्रसकायिक जीवोंमें उत्पन्न हुआ, वह जीव पूर्वकोटीपृथक्त्वसे आधिक दो हजार सागरोपम काल उनमें परिभ्रमण करके स्थावरकायको प्राप्त हुआ । तथा दूसरा जीव भी दो हजार सागरोपमप्रमाण उनमें परिभ्रमण करके स्थावरकायमें चला गया, क्योंकि, इसके ऊपर त्रसकायमें रहना संभव नहीं है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान तकका काल ओघके समान है ॥ १६०॥ ___ क्योंकि, ओघके सासादनादि सकल गुणस्थानोंके नाना और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट कालोंसे त्रसकायिक तथा त्रसकायिकपर्याप्तकोंके सासादनादि सकल गुणस्थानोंके नाना और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट कालोका कोई भेद नहीं है। त्रसकायिकलब्ध्यपयोप्तकोंका काल पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तकोंके समान है ॥१६१॥ क्योंकि, नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल क्षुद्रभव१ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र पूर्वकोटीपृथक्त्वैरभ्यधिके । स. सि. १, ८. २ शेषाणां पंचेन्द्रियवत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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