Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, ६६.] कालाणुगमे तिरिक्खकालपरूवणं
[ ३७१ पलिदोवमाणि सम्मत्तमणुपालिय देवेसुववण्णस्स देसूणतिण्णिपलिदोवममेत्तसम्मत्तकालुवलंभादो।
संजदासंजदा ओघं ॥ ६४॥
कुदो ? तिसु वि पंचिंदियतिरिक्खेसु णाणाजीव पडुच्च सयद्धा, एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुधकोडी देसूणा, इच्चाइणा भेदाभावा । णवरि जोणिणीसु वे मासे अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया त्ति वत्तव्यं ।
___पंचिंदियतिरिक्खअपजत्ता केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा॥ ६५॥
कुदो ? पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तविरहिदकालाणुवलंभा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ६६ ॥
कुदो ? एइंदिय-वेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियपज्जत्त-अपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खपजत्त मणुसपज्जत्तापज्जत्तएसु अण्णदरस्स खुद्दाभवग्गहणावुट्टिदपंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु
प्राप्त करके मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो मास कम तीन पल्योपम तक सम्यक्त्वको अनुपालन करके देवों में उत्पन्न होने वाले जीवके कुछ कम तीन पल्योपमप्रमाण सम्यक्त्वका काल पाया जाता है।
उक्त तीनों प्रकारके पंचेन्द्रिय संयतासंयत तियंचोंका काल ओघके समान है ॥ ६४॥
क्योंकि, तीनों ही प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यों में नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल, एक जीवकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त, और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण होता है, इत्यादि रूपसे भेदका अभाव है। विशेष बात यह है कि योनिमतियों में दो मास और कुछ अन्तर्मुहूसे कम, अर्थात् जन्म से लेकर शीघ्रातिशीघ्र संयमासंयमको ग्रहण करने तकके कालसे हीन, ऐसा काल कहना चाहिए।
पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंच कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ६५ ॥
क्योंकि, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंच जीवोंसे रहित कोई भी काल नहीं पाया जाता।
एक जीवकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त तियचोंका जघन्य काल क्षुद्रभवप्रहणप्रमाण है ॥ ६६ ॥
क्योंकि, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तक, तथा मनुष्य पर्याप्तक और अपर्याप्तकोंमेंसे किसी एक जीवके क्षुद्रभवग्रहणकी आयुस्थितिवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में उत्पन्न होकर,
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