Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३९४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ५, ११९. सहस्सवारं तत्थैव तत्थेव उप्पज्जदि, तो वि तेसु सम्बेसु अंतोमुहुत्तेमु एगट्ठ कदेसु वि एगमुहुत्तपमाणाभावा ।
सुहुमएइंदिया केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ११९ ॥
कुदो ? सबद्धा सुहुमेइंदियविरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुदाभवग्गहणं ॥ १२० ॥
अणप्पिदिदियस्स सुहुमेइंदियअपजत्तएसु सबजहण्णकालमच्छिय अणप्पिदिदियं गदस्स खुद्दाभवग्गहणुवलंभा।
उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥ १२१ ॥
तं जहा- अणिदिएहितो आगंतूण सुहुमेइंदिएसुप्पज्जिय असंखेज्जलोगमेत्तं तेसिमुक्कस्सभवहिदि तत्थ गमिय अणिदियं गच्छदि । कुदो ? हे उसरूवजिणवयणोवलंभादो।
सुहुमेइंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो हॉति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १२२॥
उत्पन्न होकर यद्यपि संख्यात सहस्रवार उन उनमें ही उत्पन्न होता है, तथापि उन सभी अन्तर्मुहूतौके एकत्रित करने पर भी एक मुहूर्तप्रमाणका अभाव है, अर्थात् फिर भी पूरा एक मुहूर्त नहीं होता है।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। ११९ ॥
क्योंकि, सभी कालों में सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥१२०॥
क्योंकि, अविवक्षित इन्द्रियवाले जीवके सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें सर्व जघन्य काल रह करके अविवक्षित इन्द्रियवाले जीवों में गये हुए जीवके श्रुद्रभवग्रहणप्रमाण जघन्य काल पाया जाता है ।
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकके जितने प्रदेश हैं, तत्प्रमाण है ॥ १२१॥
जैसे, अविवक्षित अन्य इन्द्रियवाले जीवोंसे आकर, सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर कोई जीव असंख्यात लोकप्रमाण उनकी उत्कृष्ट भवस्थितिको वहां पर बिताकर अन्य इन्द्रियवाले जीवों में चला जाता है, क्योंकि, इस प्रकारके हेतुस्वरूप जिन-वचन पाये जाते हैं।
सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्तक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १२२ ॥
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