Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ५, १०७. इंदियाणुवादेण एइंदिया केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ १०७॥
तिसु वि कालेसु एइंदियाणं विरहाभावादो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १०८ ॥
अणेइंदियस्स एइंदिएसुप्पञ्जिय सव्वजहण्णमेइंदियद्धमच्छिय अणेइंदिए उप्पण्णस्स खुद्दाभवग्गहणमेत्तएइंदियकालुवलंभा ।
उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियढें ॥ १०९ ॥
अणेइंदिओ एइंदिएसुप्पज्जिय अदिबहुअं कालं जीद अच्छदि तो आवलियाए असंखेजदिभागमेत्ताणि चेव पोग्गलपरियट्टाणि अच्छदि । कुदो ? एदम्हादो उवरि अच्छणसत्तीए अभावा ।
इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ १०७ ॥
क्योंकि, तीनों ही कालोंमें एकेन्द्रिय जीवोंके विरहका अभाव है।
एक जीवकी अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है॥ १०८॥
क्योंकि, एकेन्द्रियसे रहित अन्य द्वीन्द्रियादिक जीवका एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर, सर्वजघन्य एकेन्द्रिय जीवकी आयुके कालप्रमाण रह करके, पुनः एकेन्द्रियोंसे भिन्न अन्य ग्रीन्द्रियादि जीवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण एकेन्द्रिय जीवका काल पाया जाता है।
एक जीवकी अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवोंका उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है॥ १०९ ॥
एकेन्द्रियोंसे भिन्न अन्य कोई जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होकर यदि अत्यधिक काल रहता है, तो आवलीके असंख्यातवें भागमात्र ही पुद्गलपरिवर्तन रहता है, क्योंकि, इस उक्त कालसे ऊपर एकेन्द्रियों में रहनेकी शक्तिका अभाव है।
१ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां नानाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स.सि. १,.. २ एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स. सि. १, ८,
उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येया: पुदलपरिवर्ताः। स. सि. १,८.
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