Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, ९३.] कालाणुगमे देवकालपरूवणं
[३८१ सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ९० ॥ सव्वपयारेण ओघादो भेदाभावा ।
असंजदसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ९१ ॥
देवेसु असंजदसम्मादिविविरहिदकालाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ९२ ॥
मिच्छादिहिस्स सम्मामिच्छादिहिस्स वा विसोहिवसेण सम्मत्तं पडिवज्जिय सबजहण्णसम्मत्तद्धमच्छिय मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमण्णदरं गदस्स अंतोमुहुत्तकालदसणादो।
उक्कस्सं तेत्तीसं सागरोवमाणि ।। ९३ ॥
उक्कस्साउद्विदिदेवेसुप्पण्णसंजदस्स मुंजमाणाउअस्स घादाभावादो अप्पणो उक्कस्सहिदि जीविय मणुसेसु उप्पण्णदेवअसंजदसम्मादिहिस्स तेत्तीसं सागरोवममेतकालुवलद्धीए।
सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका काल ओघके समान है ॥९॥
क्योंकि, सर्व प्रकारसे, अर्थात् एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा, जघन्य और उत्कृष्ट कालसे ओघप्ररूपणाके साथ कोई भेद नहीं है।
असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ ९१ ॥
क्योंकि, देवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंसे रहित कालका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥१२॥
क्योंकि, मिथ्याइष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवके विशुद्धिके वशसे सम्यक्त्वको प्राप्त होकर, वहां सर्व जघन्य सम्यक्त्वके कालप्रमाण रह करके, पश्चात् मिथ्यात्व अथवा सम्यग्मिथ्यात्वमेंसे किसी एक गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्त काल देखा जाता है।
एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम है ॥ ९३ ॥
उत्कृष्ट आयुकी स्थितिधारक देवों में उत्पन्न हुए संयतके भुज्यमान आयुके घातका अभाव होनेसे अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जीवित रह कर, मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि देवके तेतीस सागरोपममात्र काल पाया आता है।
१ सासादनसम्यग्दृष्टेः सम्यग्मिध्यादृष्टश्च सामान्योक्तः कालः। स. सि. १,८. २ असंयतसम्यग्दृष्टेनानाजीवापेक्षया सर्वः कालः | स. सि. १, ८. ३ एकजीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ४ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि । स. सि. १,८.
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