Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, ७०. .]
कालानुगमे मणुस्सकालपरूवणं
[ ३७३
वसेण मिच्छत्तं गंतूग सव्वजहणमंतोमुहुत्तमच्छिय पुव्वुत्ताणमण्णदरं गदस्स तिसु वि मणुस्से अंतोमुहुत्तमेतमिच्छत्तकालुवलभा ।
उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेण भहियाणि
11:00 11
कुदो ? अणविदजीवस्स अप्पिदमणुसे सुववज्जिय इत्थि - पुरिस णवुंसयवेदेमु अट्ठट्ठपुव्वकोडीओ परिभमिय अपज्जत्तए सुववज्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो इत्थिणवुंसयवेदेसु अट्टट्ठपुव्यकोडीओ, पुरिसवेदेषु सत्त पुत्रकोडीओ हिंडिय देवुत्तरकुरवे सु तिणि पलिदोवमाणि अच्छिय देवेसुववण्णस्स पुत्रको डिपुत्र त्तन्भहियतिष्णिपलिदोवममुलंभा । णवरि मणुसमिच्छादिट्ठिस्स चेय सत्तेत्तालीसपुत्र कोडीओ अहिया होंति, ण सेसाणं । पज्जत्तमिच्छादिट्ठीगं तेवीसपुत्रको डीओ, मणुसअपज्जत्तएसु तेसिमुप्पत्तीए अभावादो । मणुसिणीमिच्छादिवसि सत्तपुञ्चकोडीओ अहियाओ, वेदंतर संकंतीए अभावादो ।
संक्लेशके वशसे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर, सर्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह कर, पूर्वोक्त गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके तीनों ही प्रकारके मनुष्यों में अन्तर्मुहूर्त - मात्र मिथ्यात्वा काल पाया जाता है ।
एक जीवकी अपेक्षा तीनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि मनुष्योंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्ववर्ष से अधिक तीन पल्योपमप्रमाण है ॥ ७० ॥
क्योंकि, अविवक्षित जीवके विवक्षित मनुष्यों में उत्पन्न होकर, स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेदियों में क्रमशः आठ आठ पूर्वकोटियों तक परिभ्रमण करके, लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होकर, वहां पर अन्तर्मुहूर्त काल रह करके, पुनः स्त्री और नपुंसक वेदियों में आठ आठ पूर्वकोटियां तथा पुरुषवेदियों में सात पूर्वकोटियां भ्रमण करके, देवकुरु अथवा उत्तरकुरुमें तीन तीन पल्योपमों तक रह करके, देवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवके पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पोप पाये जाते हैं । विशेष बात यह है कि मनुष्य मिथ्यादृष्टिके ही तीन पल्योपमसे अधिक सैंतालीस पूर्वकोटियां होती हैं; शेष मनुष्योंके नहीं । पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्यों के तेईस पूर्वकोटियां अधिक होती है, क्योंकि, मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकों में उनकी उत्पत्ति नहीं. होती है । मनुष्यनी मिथ्यादृष्टियों में सात पूर्तकोटियां अधिक होती है; क्योंकि, उनके वेदपरिवर्तन नहीं होता ।
१ उत्कर्षेण त्रीणि पश्योपमानि पूर्वकोटी पृथक्त्वैरभ्यधिकानि । स. सि. १, ८,
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