Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, ५, ३४.] कालाणुगमे णेरइयकालपरूवणं
तं जधा- एको खइयसम्माट्ठिी देवो वा णेरइओ वा पुवकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो । सत्त मासे गन्भे अच्छिदूण गब्भपवेसणजम्मेण अट्ठवस्सिओ जादो (८)। अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णो (१)। पुणो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूग (२) अप्पमत्तट्ठाणे अधापमत्तकरणं कादूण (३) अपुवकरणो (४) अणियट्टिकरणो (५) सुहुमखवगो (६) खीणकसाओ (७) होदूण सजोगी जादो । अट्ठहि वस्सेहि सत्तहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणपुरकोडिकालं विहरित्ता अजोगी जादो (८)। एवं अट्ठहि वस्सेहि अट्ठहि अंतोमुहुत्तेहि य ऊणपुव्यकोडी सजोगिकेवलिकालो होदि ।
( ओघपरूवणा समत्ता)। आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ३३ ॥
कुदो ? णिरयगदिम्हि सव्वकालं मिच्छादिडिवोच्छेदाभावा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३४ ॥
घह इस प्रकार है - एक क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव अथवा नारकी जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । सात मास गर्भमें रह करके गर्भ में प्रवेश करनेवाले जन्मदिनसे आठ वर्षका हुआ (८)। आठ वर्षका होने पर अप्रमत्तभावसे संयमको प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतगुणस्थान सम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनोंको करके (२) अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें अधःप्रवृत्तकरणको करके (३) क्रमशः अपूर्वकरण (४) अनिवृत्तिकरण (५) सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक (६), और क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ होकर (७), सयोगिकेवली हआ। पनः वहां पर उक्त आठ वर्ष और सात अन्तमहासे कम पर्वकोटी कालप्रमाण विहार करके अयोगिकेवली हुआ (८)। इस प्रकार आठ वर्ष और आठ अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पूर्वकोटि वर्षप्रमाण सयोगिकेवलीका काल होता है।
(इस प्रकार ओघ प्ररूपणा समाप्त हुई)। आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥३३॥
क्योंकि, नरकगतिमें सर्वकाल मिथ्यादृष्टियोंके व्युच्छेदका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा नारकी मिथ्यादृष्टिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥३४॥
१ विशेषेण गत्लनुवादेन नरकगतौ नारफेषु सप्तसु पृथिवीषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः । स. सि. १, ८.
१ एकजीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स.सि. १८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org