Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, १५.] कालाणुगमे असंजदसम्मादिहिकालपरूवणं
[३४७ सव्वलहुमतोमुहुत्तद्धमच्छिय मिच्छत्तं वा सम्मामिच्छत्तं वा संजमासंजमं वा अप्पमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो । उवरिमगुणहाणेहितो संकिलेसेण जे असंजदसम्मत्तं पडिवण्णा, ते अविणद्वेण तेण संकिलेसेण सह मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा णेदव्वा । जे हेट्ठिमगुणट्ठाणेहिंतो विसोहीए सासंजम सम्मत्तं पडिवण्णा, ते ताए चेव विसोहीए अविणद्वाए सह संजमासंजमं अप्पमत्तभावेण संजमं वा णेदव्या, अण्णहा जहण्णकालाणुववत्तीदो ।
उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १५ ॥
तं कधं ? एकको पमत्तो अप्पमत्तो वा चदुण्हमुवसामगाणमेक्कदरो वा समऊणतेत्तीससागरोवमाउट्ठिदिएसु अणुत्तरविमाणवासियदेवेसु उववण्णो । सासंजमसम्मत्तस्स आदी जादो । तदो चुदो पुव्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो। तत्थ असंजदसम्मादिट्ठी होदूण ताव द्विदो जाव अंतोमुहुत्तमेत्ताउअं सेसं ति । तदो अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णो (१)। तदो पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (२) खवगसेढिपाओग्गविसोहीए विसुद्धो अप्पमत्तो जादो (३)। अपुव्वखवगो (४) अणियट्टिखवगो (५) सुहुमखवगो (६) खीणकसाओ (७) सजोगी (८) अजोगी (९) होदण सिद्धो जादो ।
फिर वह सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रह करके मिथ्यात्वको, अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा संयमासंयमको, अथवा अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ। ऊपरके गुणस्थानोंसे संक्लेशके साथ जो असंयतसम्यक्त्वको प्राप्त हुए हैं वे जीव उसी. अधिनष्टसक्लेशके साथ मिथ्यात्व अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त कराना चाहिए। जो अधस्तन गुणस्थानोंसे विशुद्धिके साथ असंयमसहित सम्यक्त्वको प्राप्त हुए हैं, वे जीव उसी अविनष्टविशुद्धिके साथ संयमासंयमको, अथवा अप्रमत्तभावके साथ संयमको ले जाना चाहिए, अन्यथा असंयतसम्यक्त्वका जघन्य काल नहीं बन सकता है।
असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट काल सातिरेक तेतीस सागरोपम है ॥ १५ ॥ शंका-यह सातिरेक तेतीस सागरोपमकाल कैसे संभव है ?
समाधान-एक प्रमत्तसंयत, अथवा अप्रमत्तसंयत, अथवा चारों उपशामकों से कोई एक उपशामक जीव एक समय कम तेतीस सागरोपम आयुकर्मकी स्थितिवाले अनुत्तरविमानवासी देवा में उत्पन्न हुआ, और इस प्रकार असंयमसहित सम्यक्त्वकी आदि हुई। इसके पश्चात् वहां से च्युत होकर पूर्वकोटिवर्षकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहांपर वह अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयुके शेष रह जानेतक असंयतसम्यग्दृष्टि होकर रहा। तत्पश्चात् अप्रमत्तभावसे संयमको प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थानमें सहस्रों परिवर्तन करके (२), क्षपकश्रेणीक प्रायोग्य विशुद्धिले विशुद्ध हो, अप्रमत्तसंयत हुआ (३)। पुन: अपूर्वकरणक्षपक (४), अनिवृत्तिकरणक्षपक (५), सूक्ष्मसाम्परायक्षपक (६), क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ (७), सयोगिकेवली (८), और अयोगिकेवली (९) होकरके सिद्ध हो गया।
१ उत्कर्षेण प्रयास्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि | स. सि. १,८.
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