Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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कालानुगमे संजदासंजदकालपरूवणं
एगजीवं पडुच्च जहणेणंत मुहुत्तं ॥ १७ ॥
तं कथं ? एक्को अट्ठावीस संतकम्मियमिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी पमत्त संजदो वा पुत्रं पि बहुसो संजमा संजमगुणट्ठाणे परियट्टिदो परिणामपच्चएण संजमा संजमं पडवण्णो । सव्वलहुमंतोमुहुत्तद्धमच्छिदूण पमत्तसंजदचरो मिच्छत्तं वा सम्मामिच्छत्तं वा असंजदसम्मत्तं वा पडिवण्णो । पच्छाकदमिच्छत्ता सासंजमसम्मत्ता च अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवण्णा । कुदो ? अण्णहा संजदासंजदद्धाए जहण्णत्ताणुववत्तीए । किमहं सम्मामिच्छादिट्ठी संजमा संजमं गुणं ण, णीदो ! ण, तस्स देसविरदिपज्जाएण परिणमणसतीए असंभवा । वृत्तं च
१, ५, १७. ]
णय मरइ व संजममुत्रेइ तह देससंजमं वावि । सम्मामिच्छादि । ण उ मरणंतं समुग्घाओं ॥ ३३ ॥
एक जीवकी अपेक्षा संयतासंयतका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १७ ॥
वह काल इस प्रकार संभव है - जिसने पहले भी बहुतवार संयमासंयम गुणस्थान में परिवर्तन किया है ऐसा कोई एक मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा प्रमत्तसंयत जीव पुनः परिणामोंके निमित्तसे संयमासंयम गुणस्थानको प्राप्त हुआ। वहांपर सबसे कम अन्तर्मुहूर्त काल रद्द करके वह यदि प्रमत्तसंयतचर है, अर्थात् प्रमत्तसंयतगुणस्थान से संयतासंयत गुणस्थानको प्राप्त हुआ है, तो मिथ्यात्वको, अथवा सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा असंयतसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । अथवा, यदि मिथ्यात्व या पश्चात्कृत असंयमसम्यक्त्ववाले हैं, अर्थात् संयतासंयत होने के पूर्व मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि रहे हैं, तो अप्रमत्तभाव के साथ संयमको प्राप्त हुए, क्योंकि, यदि ऐसा न माना जाय तो संयतासंयत गुणस्थानका जघन्य काल नहीं बन सकता ।
शंका - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संयमासंयम गुणस्थानको किसलिए नहीं प्राप्त कराया गया ?
[ ३४९
समाधान- नहीं, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके देशविरतिरूप पर्याय से परिमनकी शक्तिका होना असंभव है । कहा भी है
सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव न तो मरता है, न संयमको प्राप्त होता है, न देशसंयमको भी प्राप्त होता है । तथा उसके मारणान्तिकसमुद्धात भी नहीं होता है ॥ ३३ ॥
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१ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८,
२ सो संजण गिदि देसजमं वा ण बंधदे आउं । सम्म वा मिच्छे वा पडिवज्जिय मरदि नियमेण ॥ सम्मत्तमिच्छ परिणामेसु जहिँ आउगं पुरा बद्धं । तहिं मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य ण मिस्सम्मि | गो. जी. २३-२४
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