Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३४६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ५, १४. अदीदाणामद-वट्टमाणकालेसु असंजदसम्मादिडिवोच्छेदो णत्थि। कुदो ? सहावदो। एसो सहाओ असंजदसम्मादिहिरासिस्सत्थि त्ति कधं णव्वदे ? सव्वद्धा-वयणादो। कथं पक्खो चेव साहणत्तं पडिवज्जदे ? ण, उभयपक्खत्तिसटिजुत्तस्स जिणवयणस्स एक्कस्स वि पक्खसाहणत्ते विरोहाभावा। दिवायरो सुओ उदेदि त्ति वयणस्सेव किरियाविसेसणत्तादो सबद्धमिदि पावेदि ? ण, तहा विवक्खाभावा । पुणो कधमत्थतणविवक्खा ? बुच्चदेसन्वा अद्धा जेसिं ते सव्वद्धा, सव्वकालसंबंधिणो त्ति वुत्तं होदि।।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १४ ॥
तं कधं ? अट्ठावीससंवकम्मियमिच्छादिट्ठी वा सम्मामिच्छादिट्ठी वा संजदासजदो वा पमत्तसंजदो वा पुर्व सासंजमसम्मत्ते बहुवारं परियट्टतो अच्छिदो असंजदो जादो ।
इसका कारण यह है कि अतीत, अनागत और वर्तमान, इन तीनों ही कालोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका व्युच्छेद नहीं है।
शंका-त्रिकालमें भी असंयतसम्यग्दृष्टि राशिका व्युच्छेद क्यों नहीं होता! समाधान-ऐसा स्वभाव ही है। शंका-असंयतसम्यग्दृष्टि राशिका ऐसा स्वभाव है, यह कैसे जाना ? समाधान-सूत्र-पठित 'सर्वाद्धा' अर्थात् सर्वकाल रहते हैं, इस वचनले जाना। शंका-विवादस्थ पक्ष ही हेतुपनेको कैसे प्राप्त हो जायगा?
समाधान नहीं, क्योंकि, उभय पक्षके अतिशय युक्त अर्थात्, उभयपक्षातीत, एक भी जिनवचनके पक्ष और साधनके होने में कोई विरोध नहीं आता।
शंका-'दिवाकर स्वतः उदित होता है। इस वचनके समान क्रियाविशेषण होनेसे 'सव्वद्धं' ऐसा पाठ होना चाहिए ?
समाधाम-नहीं, क्योंकि, उस प्रकारकी विवक्षाका अभाव है। शंका-तो यहां पर किस प्रकारकी विवक्षा है ?
समाधान-वह विवक्षा इस प्रकारकी है- सर्व काल जिन जीवोंके होता है, वे स_द्धा कहलाते हैं, अर्थात् 'सर्वकालसम्बन्धी जीव' यह 'सर्वाद्धा' पदका अर्थ है।
एक जीवकी अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥१४॥ शंका-यह काल कैसे संभव है ?
समाधान-जिसने पहले असंयमसहित सम्यक्त्वमें बहुतवार परिवर्तन किया है, ऐसा कोई एक मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत जीव असंयतसम्यग्दृष्टि हुआ।
१ एकजीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८.
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