Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,५, ४. इदि एसा वि गाहा ण विरुज्झदे, सुद्धदव-पज्जवडियणए अवलंबिय द्विदत्तादो । 'भविया सिद्धी जेसिं जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा'' इदि वयणादो सव्वेसिं भव्वजीवाणं वोच्छेदेण होदव्यं, अण्णहा तल्लक्खणविरोहादो। ण च सबओ ण णिहादि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, तस्साणंतियादो। सो अणंतो वुच्चदि, जो संखेज्जासंखेज्जरासिब्बए संते अर्णतेण वि कालेण ण णिट्ठदि । वुत्तं च
संते वए ण णिहादि कालेणाणतएण वि ।
जो रासी सो अणतो त्ति विणिहिट्ठो महेसिणा ॥ ३० ॥ जदि एवं, तो अद्धपोग्गलपरियट्टादिरासीणं सव्वयाणमणंतत्तं फिदृदि त्ति वुत्ते फिट्टदु णाम, को दोसो ? तेसु अणंतववहारो सुत्ताइरियवक्खाणपसिद्धो उपलब्भदे चे ण, तस्स उवयारणिबंधणत्तादो । तं जहा- पच्चक्खेण पमाणेण उवलद्धो जो थंभो सो जहा
यह उक्त गाथा भी विरोधको नहीं प्राप्त होती है, क्योंकि, इसमें किया गया व्याख्यान शुद्ध द्रव्यार्थिकनय और शुद्ध पर्यायार्थिकनयको अवलम्बन करके स्थित है।
शंका-'जिन जीवोंकी सिद्धि भविष्यकाल में होनेवाली है, वे जीव भव्यसिद्ध कहलाते हैं ', इस वचनके अनुसार सर्व भव्य जीवोंका व्युच्छेद होना चाहिए, अन्यथा भव्यसिद्धोंके लक्षण में विरोध आता है। तथा, जो राशि व्ययसहित होती है, वह कभी नष्ट नहीं होती है, ऐसा माना नहीं जा सकता है, क्योंकि, अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता; अर्थात् सव्यय राशिका अवस्थान देखा नहीं जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, भव्यसिद्ध जीवोंका प्रमाण अनन्त है। और अनन्त वही कहलाता है जो संख्यात या असंख्यातप्रमाण राशिके व्यय होने पर भी भनन्तकालसे भी नहीं समाप्त होता है। कहा भी है:
व्ययके होते रहने पर भी अनन्तकालके द्वारा भी जो राशि समाप्त नहीं होती है, उसे महर्षियोंने 'अनन्त' इस नामसे विनिर्दिष्ट किया है ॥ ३०॥
शंका-यदि ऐसा है, तो व्ययसहित अर्धपुद्गलपरिवर्तन आदि राशियों का अनन्तत्व नष्ट हो जाता है ?
समाधान -- उनका अनन्तपना नष्ट हो जाय, इसमें क्या दोष है ?
शंका-किन्तु उन अर्धपुद्गलपरिवर्तन आदिकों में अनन्तका व्यवहार सूत्र तथा आचार्योंके व्याख्यानसे प्रसिद्ध हुआ पाया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उन पुद्गलपरिवर्तन आदिमें अनन्तत्वका व्यवहार उपचारनिबन्धनक है। अब इसी उपचारनिबन्धनताको स्पष्ट करते हैं- जो पाषाणादिका स्तम्भ
१ गो. जी. ५५७.
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