Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३१४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ५, १.
पडिवादीर्णमुवलंभा । सो एसो इदि अण्णम्हि बुद्धीए अण्णारोवणं ठवणा णाम । सा दुविहा, सब्भावासम्भावभेदेण । अणुहरंतर अणुहरंतस्स अण्णस्स बुद्धीए समारोवा सम्भाववणा । तव्वदिरित्ता असम्भावडवणा । तत्थ सम्भावढवणा कालो णाम' पल्लवियंकुरिय-कुलिद-करलिद-फुलिद-मबुलिद-कलकोइल पुण्णालाववणसं डुज्जोइयचित्तालि हिय व संतो । असम्भाववणकालो णाम मणिभेद' - गेरुअ-मट्टी- ठिक्करादिसु वसंतो त्ति बुद्धिबले ठविदो | दव्वकालो दुविहो, आगमदो णोआगमदो य । आगमदो कालपाहुडजाणगो अणुवजुत्तो । आगमदो दव्वकालो जाणुगसरीर भविय - तव्वदिरित्तभेदेण तिविहो । तत्थ जाणुगसरीरआगमदव्वकालो भविय वट्टमाण समुज्झादभेदेण तिविहो । सो वि बहुसो पुत्रं परुविदो चि णेह वुच्चदे । भवियणोआगमदव्वकालो भविस्सकाले कालपाहुडजाणओ जीवो । ववगददोगंध- पंचरस ट्ठपास-पंचवण्णो कुंभारचक्क हेट्ठिमसिलव्व वत्तणालक्खणो लोगागासपमाणो
प्रतिपादक शब्द पाये जाते हैं । 'वह यही है' इसप्रकार से अन्य वस्तुमें बुद्धिके द्वारा अन्यका आरोपण करना स्थापना है । वह स्थापना सद्भाव और असद्भावके भेदसे दो प्रकारकी है । अनुकरण करनेवाली वस्तुमें अनुकरण करनेवाले अन्य पदार्थका बुद्धिके द्वारा समारोप करना सद्भावस्थापना है | उससे भिन्न या विपरीत असद्भावस्थापना होती है । उनमेंसे पल्लवित, अंकुरित, कुलित, करलित, पुष्पित, मुकुलित, तथा कोयलके कलकल आलापसे परिपूर्ण वनखंडसे उद्योतित, चित्रलिखित वसन्तकालको सद्भावस्थापनाकालनिक्षेप कहते हैं । मणिविशेष, गैरुक, मट्टी, ठीकरा इत्यादिकमें 'यह वसंत है' इसप्रकार बुद्धिके बलसे स्थापना करनेको असद्भावस्थापनाकाल कहते हैं ।
आगम और नोआगमके भेदसे द्रव्यकाल दो प्रकारका है । कालविषयक प्राभृतका शायक किन्तु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्यकाल है। शायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे नोआगमद्रव्यकाल तीन प्रकार है । उनमें ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यकाल भावी, वर्तमान और व्यक्तके भेदसे तीन प्रकारका है। वह भी पहले बहुत वार प्ररूपण किया जा चुका है, इसलिए यहांपर पुनः नहीं कहते हैं । भविष्यकालमें जो जीव कालप्राभृतका ज्ञायक होगा, उसे भावीनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं ।
जो दो प्रकारके गंध, पांच प्रकारके रस, आठ प्रकारके स्पर्श और पांच प्रकारके वर्णसे रहित है, कुम्भकारके चक्रकी अधस्तन शिला या कीलके समान है, वर्तना ही जिसका
१ भा प्रतौ ' पईडिवादीण ; क प्रतौ 'पवादीण ' इति पाठः ।
२ अ-क प्रत्योः ' सन्भावटुवणा वर्णसंस्थानादिनानुकुर्वतः चित्रादावारोपितं कालो णाम' इति पाठः । अत्र संस्कृतवाक्यांशः केवलं सद्भावस्थापनायाः स्वरूपबोधकं टिप्पणकं प्रतिभाति, न तु मूलग्रंथांशः । क प्रतौ सन्माद - शब्दे टिप्पणसूचकं = इति चिन्हमुपलभ्यते । तेन अस्यैवानुमानस्य पुष्टिर्जायते । आ प्रतौ स संस्कृतवाक्यांशो नोपलभ्यते । ३ प्रतिषु ' मणिभेदः गेरुअ- ' इति पाठः । म प्रतौ ' मणिभेदः ' इति पाठो नोपलभ्यते ।
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