Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, १.] कालाणुगमे णिदेसपरूवणं
[ ३१७ दोसो, कज्जे कारणोवयारणिबंधणत्तादो । वुत्तं च पंचत्थिपाहुडे ववहारकालस्स अत्थित्तं । ते जहा
सब्भावसहावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च । परियट्टणसंभूओ कालो णियमेण पण्णत्तो ॥ ७ ॥ समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती । मास उडु अयण संवच्छरो त्ति कालो परायत्तो ॥ ८॥ णस्थि चिरं वा खिप्पं वुत्तारहिदं तु सा वि खलु वुत्ता।
पोग्गलदव्वेण विणा तम्हा कालो पडुच्च भवो ॥ ९॥ इदि । एत्थ केण कालेण पयदं ? णोआगमदो भावकालेण । तस्स समय-आवलिय-खणलव-मुहुत्त-दिवस-पक्ख-मास-उडु-अयण-संवच्छर-जुग-पुव्व-पव्य-पलिदोवम-सागरोवमादिरूवत्तादो । कधमेदस्स कालववएसो ? ण, कल्यन्ते संख्यायन्ते कर्म-भव-कायायुस्थितयोऽ
शंका-पुद्गल आदि द्रव्योंके परिणामके 'काल' यह संशा कैसे संभव है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, कार्य में कारणके उपचारके निबंधनसे पुद्गलादि द्रव्योंके परिणामके भी 'काल' संज्ञाका व्यवहार हो सकता है।
पंचास्तिकायप्राभृतमें व्यवहारकालका अस्तित्व कहा भी गया है
सत्तास्वरूप स्वभाववाले जीवोंके, तथैव पुद्गलोंके और 'च' शब्दसे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्यके परिवर्तन में जो निमित्तकारण हो, वह नियमसे कालद्रव्य कहा गया है ॥ ७॥
समय निमिष, काटा, कला, नाली, तथा दिन और रात्रि, मास, ऋतु, अयन और संवत्सर, इत्यादि काल परायत्त है; अर्थात् जीव, पुद्गल एवं धर्मादिक द्रव्योंके परिवर्तनाधीन
वर्तनारहित चिर अथवा क्षिप्रकी, अर्थात् परत्व और अपरत्वकी, कोई सत्ता नहीं है । वह वर्तना भी पुद्गलद्रव्यके बिना नहीं होती है, इसलिए कालद्रव्य पुद्गलके निमित्तसे हुआ कहा जाता है ॥ ९॥
शंका-ऊपर वर्णित अनेक प्रकारके कालों से यहांपर किस कालसे प्रयोजन है? समाधान-नोआगमभावकालसे प्रयोजन है ।
वह काल-समय, आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संषत्सर, युग, पूर्व, पर्व, पल्योपम, सागरोपम आदि रूप है।
शंका-तो फिर इसके 'काल' ऐसा व्यपदेश कैसे हुआ ?
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१ पंचास्ति. गा. २३. ३ प्रतिषु ' उत्ता' इति पाठः।
२पंचास्ति. गा. २५. ४ पंचास्ति० गा.२६.
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