Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३३२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ५, ४. एदेण कारणेण अगहिदगहणद्धा थोवा जादा । एसो णोकम्मपोग्गलपरियट्टो णाम । जधा णोकम्मपोग्गलपरियट्टो वुत्तो, तधा चेव कम्मपोग्गलपरियट्टो' वत्तव्यो । णवरि विसेसो णोकम्मपोग्गला आहारवग्गणादो आगच्छंति । कम्मपोग्गला पुण कम्मइयवग्गणादो । णोकम्मपोग्गलाणं तदियसमए चेव मिस्सयगहणद्धा होदि । कम्मपोग्गलाणं पुण तिसमयाहियावलियाए । कुदो ? बंधावलियादीदाणं समयाहियावलियाए ओकड्डणवसेण पत्तोदयाणं दुसमयाहियावलियाए अकम्मभावं गदाणं कम्मपोग्गलाणं तिसमयाहियावलियाए कम्मपज्जाएण परिणमिय अण्णपोग्गलेहि सह जीवे बंधं गदाणमुवलंभा । णवरि दोसु वि पोग्गलपरियट्टेसु सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तएण पढमसमयतम्भवत्थेण पढमसमयआहारएण जहण्णुववादजोगेण गहिदकम्म-णोकम्मदव्यं घेत्तूण आदी कायव्वा । एत्थ उवउज्जंती गाहा
गहणसमयम्हि जीवो उप्पादेदि हु गुणंसपञ्चयदो । जीवेहि अणंतगुणं कम्म पदेसेसु सव्वेसु ॥ २१ ॥
इस सूत्रोक्त कारणसे अगृहीतग्रहणका काल अल्प होता है।
इस प्रकार इस सबका नाम नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन है।
जिस प्रकारसे नोकर्म पुनलपरिवर्तन कहा है, उसी प्रकारसे कर्म पुद्गलपरिवर्तन भी कहना चाहिए। विशेष बात यह है कि नोकर्मपुद्गल आहारवर्गणासे आते है । किन्तु कर्मपुद्गल कार्मणवर्गणासे आते हैं। नोकर्मपुद्गलोंके मिश्रग्रहणका काल तृतीय समयमें ही होता है। किन्तु कर्मपुद्गलोंके मिश्रग्रहणका काल तीन समय अधिक आवलीप्रमाण कालके व्यतीत होने पर होता है, क्योंकि, जो बन्धावलीसे अतीत हैं, एक समय अधिक आवलीके द्वारा अपकर्षणके वशसे जो उदयको प्राप्त हुए हैं, और दो समय अधिक आवलीके रहनेपर जो अकर्मभावको प्राप्त हुए हैं, ऐसे कर्म पुद्गलोंका तीन समय अधिक आवलीके द्वारा कर्मपर्यायसे परिणमन होकर अन्य पुद्गलोंके साथ जीवमें बंधको प्राप्त होना पाया जाता है। विशेष बात यह है कि दोनों ही पुद्गलपरिवर्तनों में प्रथम समयमें तद्भवस्थ अर्थात् उत्पन्न हुए, तथा प्रथम समयमें ही आहारक हुए सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीवके द्वारा जघन्य उपपादयोगसे गृहीत कर्म और नोकर्मद्रव्यको ग्रहण करके आदि अर्थात् परिवर्तनका प्रारंभ करना चाहिए। यहां पर उपयुक्त गाथा इस प्रकार है
__ कर्मग्रहणके समयमें जीव अपने गुणांश प्रत्ययोंसे, अर्थात् स्वयोग्य बंधकारणोंसे, जीवोंसे अनन्तगुणे कर्मोंको अपने सर्व प्रदेशों में उत्पादन करता है ॥२१॥
१ कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते-एकस्मिन् समये एकेन जीवनाष्टविधकर्मभावम पुद्गला ये गृहीताः समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीणा: पूर्वोत्तेनैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते यांवतावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनम् । स. सि. २, १०. २ प्रतिषु ' परिय?' इति पाठः ।
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