Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिविकालपरूवणं
[३३३ __ एवं दव्यपोग्गलपरियट्टणं गर्द । खेत-काल-भव-भावयोग्गलपरियडा भाणिवण गहिदव्वा । तेसिं गाहाओ
सव्वे वि पोग्गला खलु एगे भुत्तज्झिदा हु जीवेण । असई अणंतखुतो पोग्गलपरियदृसंसारे ॥ २२ ॥ सव्वम्हि लोगखेत्ते कमसो तण्णत्थि जण्ण ओच्छुण्णं । ओगाहणओ बहुसो हिंडते खेत्तसंसारे ॥ २३ ॥ ओसप्पिण्णि-उस्सप्पिणि-समयावलिया णिरंतरा सव्वा । जादो मुदो य बहुसो हिंडतो कालसंसारे ॥ २४ ॥ "णिरआउआ जहण्णा जाव दु उवरिल्लओ दु गेवज्जो । जीवो मिच्छत्तवसा भवद्विदि हिंडिदो बहुसो ॥ २५ ॥
___ इस प्रकार द्रव्यपुद्गलपरिवर्तन समाप्त हुआ । क्षेत्र, काल, भव और भावपुलपरिवर्तनोंको कहलाकर ग्रहण करा देना चाहिए । उन परिवर्तनोंकी (संक्षेपसे अर्थ-प्रतिपादक) गाथाएं इस प्रकार हैं
इस जीवने इस पुलपरिवर्तनरूप संसारमें एक एक करके पुनः पुनः अनन्तवार सम्पूर्ण पुद्गल भोग करके छोड़े हैं ॥ २२॥
इस समस्त लोकरूप क्षेत्र में एक प्रदेश भी ऐसा नहीं है जिसे कि क्षेत्रपरिवर्तनरूप संसारमें क्रमशः भ्रमण करते हुए बहुतवार नाना अवगाहनाओंसे इस जीवने न छुआ हो ॥२३॥
कालपरिवर्तनरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके सर्व समयोंकी आवलियों में निरंतर बहुतवार उत्पन्न हुआ और मरा है ॥ २४ ॥
भवपरिवर्तनरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ यह जीव मिथ्यात्वके वशसे जघन्य नारकायुसे लगाकर (तिर्यंच, मनुष्य और) उपरिम प्रैवेयक तककी भवस्थितिको बहुतवार प्राप्त हो चुका है ॥२५॥
१ स. सि. २, १०. परं तत्र 'एगे' इति स्थाने 'कमसो' इति पाठः । सर्वेऽपि पुद्गलाः खलु एकनातोझिताच जीवेन । ह्यसकृस्वनंतकृत्वः पुद्गलपरिवर्तसंसारे ॥ गो. जी. जी. प्र. ५६०.
२स. सि. २,१०. परं तत्र 'ओच्छण्णं' इति स्थाने ' उप्पणं' इति पाठः । सर्वत्र जगरक्षेत्रे देशोन अस्ति जंतुनाऽक्षुण्णः । अवगाहनानि बहुशो बंभ्रमता क्षेत्रसंसारे ॥ गो. जी. जी. प्र. ५६०.
स.सि २.१०. परंतत्र द्वितीय चरणे 'समयावलियासु णिरवसेसामु' इति पाठ।। उत्सर्पणावसर्पणसमयावलिकासु निरवशेषासु । जातो मृतश्च बहुशः परिभ्रमन् कालसंसारे ॥ गो. जी. जी. प्र. ५६०.
४ प्रतिषु गाथेयं २६ तमांकितगाथायाः पश्चादुपलभ्यते ।
५ णिस्यादिजहणादिसु जाव दु उवरिल्लया दु गेवेज्जा । मिच्छत्तससिदेण हु बहुसो वि भवद्विदी भमिदा ॥ स. सि. १, १०. नरकजघन्यायुष्याशुपरिमवेयकावसाने । मिथ्यात्वसंश्रितेन हि भवस्थितिर्भाविता बहशा॥ गो. बी. जी. प्र. ५६..
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