Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, १.]
कालाणुगमे णिसपरूवण अत्यो तबदिरित्तणोआगमदव्वकालो' णाम । वुत्तं च पंचत्थिपाहुडे
कालो त्ति य ववएसो सब्भावपरूवओ हवइ णिच्चो। उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरहाई ॥ १ ॥ कालो परिणामभवो परिणामो दव्वकालसंभूओ । दोण्हं एस सहाओ कालो खणभंगुरो णियदो' ॥ २ ॥ ण य परिणमइ सयं सो ण य परिणामेइ अण्णमण्णेहिं । विविहपरिणामियाणं हवइ सुहेऊ संयं कालो ॥ ३ ॥ लोयायासपदेसे एक्कक्के जे ट्ठिया दु एक्केक्का ।
रयणाणं रासी इव ते कालाण मुणेयव्वा ॥ ४ ॥ जीवसमासाए वि उत्तं
छप्पंचणवविहाणं अत्याणं जिणवरोषइट्ठाणं । आणाए अहिगमेण य सदहणं होइ सम्मत्तं ॥ ५॥
लक्षण है, और जो लोकाकाशप्रमाण है, ऐसे पदार्थको तद्व्यतिरिक्कनोआगमद्रव्यकाल कहते हैं। पंचास्तिकायप्राभृतमें कहा भी है
'काल' इस प्रकारका यह नाम सत्तारूप निश्चयकालका प्ररूपक है, और यह निश्चयकालद्रव्य अविनाशी होता है। दूसरा व्यवहारकाल उत्पन्न और प्रध्वंस होनेवाला है। तथा आवली, पल्य, सागर आदिके रूपसे दीर्घकाल तक स्थायी है ॥१॥
व्यवहारकाल पुद्गलोंके परिणमनसे उत्पन्न होता है, और पुद्गलादिका परिणमन द्रव्यकालके द्वारा होता है। दोनोंका ऐसा स्वभाव है। यह व्यवहारकाल क्षणभंगुर है, परन्तु निश्चयकाल नियत अर्थात् अविनाशी है ॥ २॥
वह कालनामक पदार्थ न तो स्वयं परिणमित होता है, और न अन्यको अन्यरूपसे परिणमाता है। किन्तु स्वतः नाना प्रकारके परिणामोंको प्राप्त होनेवाले पदार्थोंका काल स्वयं सुहेतु होता है॥३॥
- लोकाकाशके एक एक प्रदेशपर रत्नोंकी राशिके समान जो एक एक रूपसे स्थित हैं, वे कालाणु जानना चाहिए ॥४॥
जीवसमासमें भी कहा है
जिनवरके द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, अथवा पंच अस्तिकाय, अथवा नव पदाका आवासे और अधिगमसे श्रद्धान करना सम्यक्त्व है ॥५॥
१ बगदपणवण्णरसो क्वगददोगंध अहफासो य । अगुरुलहुगो अमुचो वट्टणलक्खो य कालो ति ॥ पंचास्ति. गा. १४. २ पंचास्ति. गा. १०८.
३ पंचास्ति. गा.१.७. ४ गो. जी. ५०८. ५ गो. नी. ५६०,
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