Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३२० ]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ५, १.
द्वौ पक्षौ मासः । ते च श्रावणादयः प्रसिद्धाः । द्वादशमासं वर्षम् । पंचभिर्वषैर्युगः । एवमुवरि वित्तव्यं जाव कप्पो त्ति । एसो कालो णाम । कस्स इमो कालो ? जीव- पोग्गलाणं । कुदो? तप्परिणामत्तादो। अधवा इमो राजमंडलस्स परियदृणलक्खणस्स, तदुदयत्थमणेहिंतो दिवसादीणमुप्पत्तीए । केण कालो कीरदि ? परमकाले । कत्थ कालो ? माणुसखेत्ते कसुज्जमंडले तियालगोयराणंतपज्जाएहि आवृरिदे' । जदि माणुसखेत्तेक्कसुज्जमंडले कालो द्विदो होदि, कथं तेग सव्यपोग्गलाणमणंतगुणेण पदीवो व् सपरप्पयासकारणेण जवरासि व्व समयभावेणावट्ठिदेण छद्दव्व परिणामा पयासिज्जते ? ण एस दोस्रो, मिणिज्जमाणदव्वेहिंतो पुधभूदेण मागहपत्थेणेव मवणविरोहाभावा । ण चाणवत्था, पईवेण विउच्चारा | देवलोगे कालाभावे तत्थ कथं कालववहारो ! ण, इहत्थेणेच
दो पक्षोंका एक मास होता है । वे मास श्रावण आदिक के नामसे प्रसिद्ध हैं । बारह मास का एक वर्ष होता है। पांच वर्षोंका एक युग होता है। इस प्रकार ऊपर ऊपर भी कल्प उत्पन्न होने तक कहते जाना चाहिए। यह सब काल कहलाता है ।
शंका- यह काल किसका है, अर्थात् कालका स्वामी कौन है ?
समाधान - -जीव और पुद्गलोंका, अर्थात् ये दोनों कालके स्वामी हैं; क्योंकि, काल तत्परिणामात्मक है ।
अथवा, परिवर्तन या प्रदक्षिणा लक्षणवाले इस सूर्यमंडल के उदय और अस्त होने से दिन और रात्रि आदिकी उत्पत्ति होती है ।
शंका - काल किससे किया जाता है, अर्थात् कालका साधन क्या है ?
समाधान - परमार्थकालसे काल, अर्थात् व्यवहारकाल, निष्पन्न होता है । शंका- - काल कहां पर है, अर्थात् कालका अधिकरण क्या है ?
समाधान — त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे परिपूरित एकमात्र मानुषक्षेत्रसम्बन्धी सूर्यमंडल में ही काल है; अर्थात् कालका आधार मनुष्यक्षेत्रसम्बन्धी सूर्यमंडल है ।
शंका - यदि एकमात्र मनुष्यक्षेत्र के सूर्यमंडल में ही काल अवस्थित है, तो सर्व पुद्गलोंसे अनन्तगुणे तथा प्रदीपके समान स्व पर प्रकाशनके कारणरूप, और यवराशिके समान समयरूपसे अवस्थित उस कालके द्वारा छह द्रव्योंके परिणाम कैसे प्रकाशित किये जाते हैं ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, मापे जानेवाले द्रव्योंसे पृथग्भूत मागध (देशीय) प्रस्थ के समान मापने में कोई विरोध नहीं है । न इसमें कोई अनवस्था दोष ही आता है, क्योंकि, प्रदीप के साथ व्यभिचार आता है । अर्थात् जैसे दीपक, घट, पट आदि अन्य पदार्थोंका प्रकाशक होनेपर भी स्वयं अपने आपका प्रकाशक होता है, उसे प्रकाशित
१ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके । तत्कृतः कालविभागः । तत्त्वा. सू. ४, १३-१४.
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