Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिहिकालपरूवणं
[ ३२५ सव्वजहण्णो मिच्छत्तकालो होदि । सासणसम्मादिट्ठी मिच्छत्तं किण्ण पडिवजाविदो १ ण, सासणसम्मत्तपच्छायदमिच्छादिहिस्स अइतिव्वसंकिलिट्ठस्स मिच्छत्ततम्हा विणडिअस्स सव्वजहण्णकालेण गुणंतरसंकमणाभावा । उक्कस्सकालपदुप्पायणमुत्तरसुत्तं भणदि
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टे देसूणं ॥४॥
अद्धपोग्गलपरियटृ णाम किं? वुच्चदे- अणाइसंसारे हिंडंताणं जीवाणं दव्वपरियट्टणं खेत्तपरियट्टणं कालपरियट्टणं भवपरियट्टणं भावपरियट्टणमिदि पंच परियट्टणाणि होति । जं तं दव्यपरियट्टणं तं दुविहं, णोकम्मपोग्गलपरियणं कम्मपोग्गलपरियट्टणं चेदि । तत्थ णोकम्मपोग्गलपरियट्ट वत्तइस्सामो । तं जहा- जदि वि पोग्गलाणं गमणागमणं पडि
मिथ्यात्वका सर्वजघन्य काल होता है।
शंका-सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको क्यों नहीं प्राप्त कराया गया ? अर्थात् सासादनसम्यग्दृष्टिको भी मिथ्यात्व गुणस्थानमें पहुंचाकर उसका जघन्यकाल क्यों नहीं बतलाया?
समाधान-नहीं, क्योंकि, सासादनसम्यक्त्वसे पीछे आनेवाले, अतितीव्र संक्लेशवाले मिथ्यात्वरूपी अन्धकारसे विडम्बित मिथ्यादृष्टि जीवके सर्व जघन्यकालसे गुणान्तरसंक्रमणका अभाव है, अर्थात् गुणस्थान-परिवर्तन नहीं हो सकता है।
अब मिथ्यात्वके उत्कृष्टकालके बतलाने के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं
एक जीवकी अपेक्षा सादि-सान्त मिथ्यात्वका उत्कृष्टकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है ॥ ४॥
शंका-अर्धपुद्गलपरिवर्तन किसे कहते हैं ? __ समाधान-इस अनादि संसारमें भ्रमण करते हुए जीवोंके द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, काल परिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन, इस प्रकार पांच परिवर्तन होते रहते हैं। इसमेंसे जो द्रव्यपरिवर्तन है, वह दो प्रकारका है- नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन और कर्मपुद्गलपरिवर्तन । उनमेंसे पहले नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनको कहते हैं। वह इस प्रकार है
यद्यपि पुद्गलोंके गमनागमनके प्रति कोई विरोध नहीं है, तो भी बुद्धिसे (किसी
१ प्रतिषु · विणदिअस्स ' इति पाठः। २ उत्कर्षेणार्थपुद्गलपरिवतों देशोनः । स. सि. १, ८.
तत्र नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीना योग्या ये पुरला एकेन जीवेन एकस्मिन् समये गृहीताः स्निग्धरूक्षवर्णगन्धादिमिरतीवमन्दमध्यममावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेर निजी अगृहीताननन्तवारानतीत्य मिश्रकश्चिानन्तवारानतीय मध्ये गृहीताश्वानन्तवारानतीव्य त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनम् । स. सि. २, १०. गो. जी, जी. प्र. ५६०,
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