Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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सिरि-भगवंत-पुष्पदंत-भूदवलि-पणीदो
छक्खंडागमो सिरि-वीरसेणाइरिय-विरइय-धवला-टीका-समण्णिदो
तस्स
पढमखंडे जीवट्ठाणे
कालाणुगमो कम्मकलंकुत्तिण्णं' विबुद्धसव्वत्थमुत्तवत्थमणं ।
णमिऊण उसहसेणं कालणिओगं भणिस्सामो ॥ कालाणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य ॥१॥
णामकालो ठवणकालो वकालो भावकालो चेदि कालो चउव्विहो । तत्थ णामकालो णाम कालसहो । कधं सद्दो अप्पाणं पडिवज्जादि चे, ण एस दोसो; स-परप्पयासमयपमाण
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कर्मरूप कलंकसे उत्तीर्ण, सर्व अर्थोके जाननेवाले, और अस्त रहित अर्थात् सदा उदित, ऐसे वृषभसेन गणधरको नमस्कार करके अब कालानुयोगद्वारको कहते हैं।
कालानुगमसे दो प्रकारका निर्देश है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ॥१॥
नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल, और भावकाल, इस प्रकारसे काल चार प्रकारका है। उनमेंसे 'काल' इस प्रकारका शब्द नामकाल कहलाता है।
शंका-शब्द कैसे अपने आपको प्रतिपादित करता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, शब्दके स्व-परप्रकाशात्मक प्रमाणके
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१ अ-आ-क-प्रतिषु तम्मकुलंकुढणं ' इति पाठः ।
२ म स प्रत्योः ' मुत्थ '; अ-आप्रत्योः ' मुद्ध'; क प्रतौ · मद्ध' इति पाठः। • ३ काल: प्रस्तूयते । स द्विविधः सामान्येन विशेषेण च । स. सि. १, ८.
४ प्रतिषु सहस्स स-पर ' इति पाठः । म प्रतौ तु ' सदस्स ' इति पाठो नोपलभ्यते ।
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