Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२७८]
छक्खंडगिमे जीवट्ठाणं संखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो, तिरियरासिस्स पाधण्णादो । मारणंतिय-उववादा णस्थि ।
असंजदसम्मादिहि-संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स . असंखेज्जदिभागो ॥ ११५॥
एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा । छ चोदसभागा देसूणा ॥ ११६ ॥
सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउबियपरिणदेहि णqसगवेद-असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजदेहि तिण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो । एसो 'वा' सद्दवो । मारणंतियपरिणदेहि छ चोदसभागा देसूणा फोसिदा, अच्चुदकप्पादो उवरि तिरिक्खासंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदाणं गमणाभावा । उववादपदं णत्थि। णवरि असंजदसम्मादिट्ठीहि उववादपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो।।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं ॥ ११७ ॥
संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। क्योंकि, यहांपर तिर्यच. राशिकी प्रधानता है । यहांपर मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं।
नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ११५ ।।
इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है।
उक्त जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥११६ ॥ .
... स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संण्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यह 'पा' शब्दका अर्थ है । मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह (१) भाग स्पर्श किये हैं; क्योंकि, अच्युतकल्पसे ऊपर असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यंचोंके गमनका अभाव है। यहांपर उपपादपद नहीं होता है । विशेष बात यह है कि उपपादपदपरिणत असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातयां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पर्श किया है।
___ उक्त नपुंसकवेदी जीवों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान लोकका असंख्यातवां भाग है ॥ ११७॥
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