Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, ४, १५३.] फोसणाणुगमे तेउलेस्सियफोसणपरूवणं
[२९५ अट्ट णव चोदसभागा वा देसूणा ॥ १५१ ॥
सत्थाणपदपरिणदेहि तेउलेस्सियमिच्छादिद्वि-सासणसम्मादिट्ठीहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। एसो 'वा' सद्दट्ठो। विहार-वेदण-कसाय--वेउब्बियपरिणदेहि अट्ठ-चोदसभागा, मारणंतिय-उववादपरिणदेहि णव दिवङ्क-चौदसभागा पोसिदा ।
सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १५२ ॥
एदस्स परूवणा खेत्तभंगा।
अट्ठ चोदसभागा वा देसूणा ॥ १५३ ॥ सत्थाणपरिणदेहि दोगुणट्ठाणजीवेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरिय
तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह और कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १५१ ॥
स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यह 'वा' शब्दका अर्थ है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदसे परिणत जीवोंने आठ बटे चौदह (४) भाग, मारणान्तिकसमुद्धातपरिणत उक्त जीवोंने नौ बटे चौदह (२४) भाग और उपपादपदपरिणत उन्हीं जीवोंने डेढ़ बटे चौदह (३४) भाग स्पर्श किये हैं।
तेजोलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १५२ ॥
इस सूत्रकी प्ररूपण। क्षेत्रप्ररूपणाके समान है।
उक्त जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १५३ ॥
स्वस्थानपदपरिणत सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि, इन दोनों गुणस्थानवर्ती तेजोलेश्यावाले जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका
...................
१ ते उस्स य सट्ठाणे लोगस्स असंखभागमेतं तु । अडचोदसभागा वा देसूणा होति णियमेण ॥ गो. जी. ५४६ . २ एवं तु समुग्घादे णव चोद्दसभागयं च किंचूर्ण । उववादे पढमपदं दिवडचोद्दस य किंचूर्ण ॥ गो. जी. ५४७. ३ सम्यग्मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिमिलोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १, ८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org