Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ४, १६३. ]
फोसणागमे सुक्कलेस्सिय फोसणपरूवणं
पमत्त - अप्पमत्तसजदा ओघं ॥ १६९ ॥
सुगममेदं सुतं । सुकले स्सिए खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १६२ ॥ एदं सुत्तं सुगमं, खेत्ताणिओगद्दारे उत्तत्थादो ।
[ २९९
मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदेहि केवडियं
छ चोद्द सभागा वा देणा ॥ १६३ ॥
सत्थाणपरिणद सुक्कलेस्सियमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेञ्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; विहार-वेदण-कसाय- वेउच्चिय-मारणंतिय परिणदेहि छ चोदभागा देणा पोसिदा । उववादपरिणदसुक्कले स्सियमिच्छादिट्ठीहि सासणसम्मादिट्ठीहि य चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डा इजादो असंखेज्जगुणो पोसिदो; तिरिक्खमिच्छादिड्डि-सासण
पद्मावाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओके समान है ॥ १६१ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। १६२ ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, क्षेत्रानुयोगद्वार में इसका अर्थ कह दिया गया है । शुक्ललेश्यावाले उक्त जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ।। १६३ ॥
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स्वस्थानपदपरिणत शुक्ललेश्यावाले मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकपदपरिणत जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं । उपपादपदपरिणत शुकुलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । इसका कारण यह है कि तिर्यच मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका शुक्ललेश्या के साथ देवों में उपपाद नहीं होता है । पैंतालीस
१ प्रमत्ताप्रमत्तैर्लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १,८.
१ शुक्ललेश्यैर्मिथ्यादृष्ट्यादिसंयत । संयतान्तैर्लोकस्यासंख्येयभागः षट् चतुर्दशभागा व देशानाः । स. सि. १,८० ३ सुकरस य तिकाणे पदमो छोदसा हीणा ॥ गो. जी. ५४९..
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