Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ४, १४९.] फोसणाणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सियफोसणपरूवणं [२९३ आधेयपुव्वुत्तरकालेसु असतीए आहारत्तविरोहादो। तम्हा सुत्तुत्तमेव होदु, गिरवजत्तादो।
सम्मामिच्छादिद्वि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १४९॥
एदस्स वदृमाणपरूवणा खेत्तभंगो। सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण कसाय
शुभलेश्या हो जाती है । अतएव कृष्ण, नील और कापोतलेझ्याके साथ रहनेवाले देवोंके उपपाद का अभाव बतलाया, क्योंकि, देवोंका मरण न तो अपर्याप्तकाल में ही होता है और न पूरी आयुके समाप्त हुए विना ही। अतः यह कहना युक्तिसंगत ही है कि कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंके साथ रहकर पीछे उपपाद नहीं होता है।
दूसरी बात यह है कि लेश्यामार्गणा उपपाद-समान-कालभाविनी नहीं है, क्योंकि, आधेयरूप पूर्व और उत्तर कालों में अविद्यमान लेश्याके आधारपनेका विरोध है। इसलिए सूत्रोक्त ही स्पर्शनक्षेत्रका प्रमाण होना चाहिए, क्योंकि, वही प्रमाण निर्दोष पाया जाता है।
विशेषार्थ- यहांपर लेश्यामार्गणा उपपाद-समानकाल-भाविनी नहीं है, ऐसा कहनेका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकारसे विवक्षित जीवके पूर्व भवको छोड़नेके पश्चात् उत्तर भवको ग्रहण करने के साथ ही गति, योग, आहार आदि यथासंभव कितनी ही मार्गणाएं परिवर्तित हो जाती हैं, उस प्रकार लेश्यामार्गणा परिवर्तित नहीं होती है । इसका कारण यह है कि जीव जिस लेश्यासे मरण करता है उसी लेश्यासे ही उत्पन्न होता है, ऐसा एकान्त नियम है। और इसी नियमके कारण भवनत्रिक देवोंके अपर्याप्तकालमें तीन अशुभ लेश्याओंका अस्तित्व माना गया है। इसी बातको सिद्ध करने के लिए जो हेतु दिया गया है, उसका भी अभिप्राय यही है कि यदि उपपाद होने के साथ ही लेश्याके परिवर्तनका नियम अवश्यंभावी होता, तो मरण करने के पूर्वकालमें और उत्तरकाल में विवक्षित लेश्याके परिवर्तित हो जानेसे आधार-आधेयपना बन जाता, अर्थात् , मरणकाल और उपपादकालरूप पूर्वोत्तरकाल आधेय बन जाते और उनमें होनेवाली लेश्या आधार बन जाती । किन्तु भवपरिवर्तनके हो जाने पर भी लेश्यापरिवर्तन होता नहीं है, इसलिए कहा गया है कि आधेयरूप पूर्व और उत्तर कालोंमें विवक्षित लेझ्याका परिवर्तन न होनेसे आधारपना नहीं बन सकता है।
उक्त तीनों अशुभलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १४९ ॥
इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत तीनों अशुभलेश्यावाले
१ सम्यमिण्यादृष्टयसंयतसम्यग्दष्टि मिलोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १, 6.
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