Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२८८ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
असंजदेसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव
ओघं ॥ १३९ ॥
एदं पि सुतं सुगमं, ओघ हि मिच्छादिडिआदिच दुगुणद्वाणपरूत्रणाण परुविदत्तादो । एवं संजममग्गणा समत्ता ।
[ १, ४, १३९.
असंजदसम्मादिट्टित्ति
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १४० ॥
एदं सुतं सुगमं खेत्ताणिओगद्दारे उत्तट्ठादो |
अ चोदभागा देणा सव्वलोगो वा ॥ १४१ ॥
सत्थाणत्थेहि चक्खुदंसणिमिच्छादिट्ठीहि तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो; विहार-वेदण-कसाय- वेउन्त्रिय - परिणदेहि देसूण चोदसभागा; मारणंतिय उववादपरिणदेहि सव्वलोगो पोसिदो ।
असंयत जीवों में मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती असंयत जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १३९ ॥
यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, ओघ में मिध्यादृष्टि आदि चारगुणस्थानों की प्ररूपणाओंका निरूपण किया गया है ।
इस प्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई ।
दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १४० ॥
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, क्षेत्रानुयोगद्वार में इसका अर्थ कहा जा चुका है । चक्षु दर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ १४१ ॥
स्वस्थानस्थ चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है | विद्दारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह (१४) भाग स्पर्श किये हैं। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है ।
१ xx असंयतानां च सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, ८.
२ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दर्शनिनां मिथ्यादृष्टया दिक्षीणकषायान्तानां पंचेन्द्रियवत् । स सि. १, ८,
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