Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२.५ छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[१, १, १११. णत्थि । मारणंतिय-परिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। . णउंसयवेदएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १११ ॥
सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदणqसयवेदमिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेसु जेण सव्वलोगो फोसिदो; विहारपरिणदेहि तिसु वि कालेसु तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो ति; तेण ओघत्तं जुज्जदे । किंतु वेउब्धियपदस्स ओघभंगो ण होदि, तत्थ वेउब्बियपदं वट्टमाणकाले तिरियलोगस्स संखेजदिभागमेत्तमदीदकाले उभयत्थ वि अह पंच चोहसभागा ति? ण, पदविसेसविवक्खामावेण ओघणिद्देसस्स विरोहाभावा ।।
सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥ ११२ ॥
तेजस और आहारकसमुद्धात, ये दोनों पद नहीं होते हैं। मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है।
नपुंसकवेदी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओषके समान सर्वलोक है॥१११॥
शंका-स्वस्थानखस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिक और उपपाद, इन पदोंसे परिणत नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों ही कालोंमें चूंकि सर्वलोक स्पर्श किया है। तथा विहारवत्स्वस्थानपदपरिणत उक्त जीवोंने तीनों ही कालोंमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका भसंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसलिए सूत्रमें कहा गया ओघपना घटित हो जाता है। किन्तु वैक्रियिकपदका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान घटित नहीं होता है, क्योंकि, वहां पर, अर्थात् ओघप्ररूपणामें (देखो पृ. १४८), वैक्रियिकपदका वर्तमानकालमें तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र, और भंतीतकालमें दोनों ही स्थलोपर, अर्थात् ओघप्ररूपणामें और आदेशप्ररूपणाके अन्तर्गत, वेदप्ररूपणामें माठ बटे चौदह (४) तथा पांच बटे चौदह (१५) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र कहा है?
समाधान नहीं, क्योंकि, पदविशेषकी विवक्षाका अभाव होनेसे सूत्रमें ओघपदका निर्देश विरोधको प्राप्त नहीं होता है।
नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ११२ ॥
१ नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टीना सासादनसम्यग्दृष्टीना व सामान्योक्त स्पर्शनम् । स. सि. १, ८.
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