Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१८०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ४, १५. एगदिसाए णियदगमणादो; तिरिच्छं गच्छमाणाणं पि जीवाणमप्पणो उप्पज्जमाणदिसं मोत्तूण अण्णदिसाणं गमणाभावादो, उप्पज्जमाणदिसं गच्छंताणं पि जीवाणं अप्पणो उप्पज्जमाणखेत्तसमाणट्ठाणमपावेदूण अंतराले सवत्थ उजुवलणाभावादो। तदो सव्वणिरयावासेहिंतो माणुसखेतमागच्छंताणं सम्मादिट्ठीणं णिरयावासप्पडिहिदपडिणियदवट्टाणं पोसणं चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो चेव । अधवा णेरइयसम्मादिट्ठीणं तत्थतणमिच्छाइट्ठीणं (व) घणरज्जुपदरसबागासपदेसेहितो (ण) णिग्गमणमत्थि, मणुसोववादियत्तादो, णेरइयपडिबद्धाणं मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवीणं व पडिबद्धागासपदेसाणं रज्जुपदरम्हि सव्वत्थाभावादो। किं तदभावलिंगम ? एदं चेव पोसणसुतं । समीकरणे कदे जदि एक्कणेरइयावासविक्खंभो एगसेढिं सेढिविदियवग्गमूलेण खंडियमेत्तो होदि, तो तस्स खेत्तफलं जगपदरं सेढिपढमवग्गमूलेण खंडियमेत्तं होदि । पुणो अदीदकाले तत्थ वाइदूण उड्ढे मारणंतियं मेल्लंताणं एवं खेतफलं मुहं होदि, संखज्जरज्जु
उनका गमन एक दिशामें ही, अर्थात् उत्पत्तिक्षेत्रकी ओर ही, नियत हो चुका है। तिरछे गमन करनेवाले भी जीवोंके अपनी उत्पन्न होनेवाली दिशाको छोड़कर अन्य दिशाको गमन नहीं होता है। उत्पन्न होने की दिशाको जाते हुए भी जीवोंके अपने उत्पन्न होने के क्षेत्रके समान अन्य स्थानको नहीं प्राप्त करके अन्तरालमें सर्वत्र ऋजुवलन अर्थात् सरलगतिसे वक्रगति होनेका अभाव है। इसलिए सभी नारकावासोंसे मनुष्यक्षेत्रको आनेवाले और नारकावासमें प्रतिष्ठित होते हुए नियत क्षेत्रकी ओर प्रवर्तमान सम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग ही है।
अथवा, मनुष्यों में उत्पन्न होने के कारण नारकी सम्यग्दष्टियोंका वहांके मिथ्यादृष्टियोंके समान धनराजुप्रतरके सर्व आकाशप्रदेशोंसे निर्गमन नहीं होता है, क्योंकि, नरकगतिसे प्रतिबद्ध मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीवाले जीवोंके तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीवाले जीवोंके समान प्रतिबद्ध आकाश-प्रदेशोंका राजुप्रतर में सर्वत्र अभाव है।
शंका-इस सर्वत्र अभावका लिंग क्या है, अर्थात् यह किस आधारसे जाना ? समाधान--उक्त बातका बतानेवाला यही स्पर्शन-सूत्र है।
समीकरण करनेपर यदि एक नारकावासका विष्कम्भ एक जगश्रेणीको जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलसे खंडित करनेपर एक खंड मात्र होता है, तो उसका क्षेत्रफल जगश्रेणीके प्रथम वर्गमूलसे जगप्रतरको खंडित करनेपर एक खंड मात्र होता है। पुनः अतीतकाल में घहां रहकर ऊपरकी ओर मारणान्तिकसमुद्धात करनेवालोंका यह क्षेत्रफल मुखरूप हो जाता है और संख्यात राजुप्रमाण आयाम होता है।
१ प्रतिधु ' उकुबलणा' म. प्रतौ पुलेकमा' इति पाठः । २ प्रेति कोष्ठकान्तर्गतपाठी नास्ति ।
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