Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ४, ४७. मोगाहणाओ उववाद विसिट्ठाओ एगढे करिय गहिदे होदि । तेण तिरियलोगादा वेंतरमिच्छादिट्टि-उववादखेत्तमसंखेज्जगुणं जादं । पोसणम्हि पुण जीवप्पडिद्विदओगाहणाओ ण घेप्पंति, किंतु तीदकाले उववादपरिणदमिच्छादिहि-सासणसम्मादिहिवेंतरेहि च्छित्तखेत्तमेव घेप्पदि, उतरेसु वि ण देवा जेरइया वा उप्पज्जति, ण च एइंदिया विगलिंदिया, किंतु सण्णि-असण्णिपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसा चेत्र । ण च उतराणमावासा सोधम्मादिसु तिरियलोगवाहिरेसु कप्पेसु अत्थि, तधोवदेसाभावा । ण च लक्खजोयणबाहल्लतिरियपदरम्हि सव्वत्थ वेंतरावासा चेव, जोदिसियवासाणं वेलंधरपण्णगादिआवासाणं च अभावप्पसंगा। ण च भूमीए चेव वेंतरावासा होति त्ति णियमो अत्थि, आगासपीदट्ठियाणं पि वेंतरावासाणं संभवादो। ण च तिरियलोगे चेव वेंतरावासाणमत्थित्तणियमो, हेहा पंकबहुलपुढवीए वि भूत-रक्खसावासाणमुवलंभादो । तम्हा किंचूणमजोएदण वेलक्खबाहल्लतिरियपदरं ठविय सत्तकदीए ओवट्टिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागवाहल्लं जगपदरं होदि । एवं चेव जोदिसियाणं पि वत्तव्यं, णवरि उववादखेत्ते
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, सर्व जीवोंकी उपपादविशिष्ट अवगाहनाओंको एकट्टा करके ग्रहण करने पर क्षेत्र' यह नाम होता है, इसलिए मिथ्यादृष्टि व्यन्तरदेवोंका उपपादक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यात गुणा हो जाता है । पर स्पर्शनमें जीवोंसे प्रतिष्ठित अवगाहनाएं नहीं ग्रहण की जाती हैं, किन्तु अतीतकालमें उपपादपरिणत मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि व्यन्तर देवोंसे स्पर्शित क्षेत्र ही ग्रहण किया जाता है। व्यन्तरोंमें भी न तो देव अथवा नारकी जीव उत्पन्न होते हैं और न एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय जीव ही, वहां केवल संज्ञी व असंही पंचेन्द्रियतिथंच और मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं । तथा तिर्यग्लोकसे बाहिर स्थित सौधर्मादि कल्पों में भी व्यन्तर देवोंके आवास नहीं होते हैं, क्योंकि, उस प्रकारके उपदेशका अभाव है। और न लाख योजन बाहल्यवाले तिर्यकप्रतर ही सर्वत्र व्यन्तर देवोंके आवास होते हैं, अन्यथा चन्द्र, सूर्यादि ज्योतिष्क देवों के आवासोंका और वेलंधर, पन्नग आदि भवनवासी देवांके आवासोंके अभावका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। तथा भूमि में ही व्यन्तर देवोंके आवास होते हैं, ऐसा भी नियम नहीं है, क्योंकि, आकाश में प्रतिष्ठित व्यन्तरोंके आवास सम्भव हैं। और न तिर्यग्लोकमें ही व्यन्तर देवोंके आवासोंके अस्तित्वका नियम है, क्योंकि, नीचे रत्रप्रभा पृथिवीके पंकबहुल भागमें भी भूत और राक्षस नामके व्यन्तर देवोंके आवास पाये जाते हैं। इसलिए कुछ कम क्षेत्रको नहीं जोड़कर दो लाख योजन बाहल्यवाले तिर्यक्प्रतरको स्थापित करके सातकी कृति अर्थात् वर्गसे अपवर्तितकर प्रतराकारसे स्थापित करने पर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण बाहल्यवाला जगप्रतर हो जाता है।
इसी प्रकारसे ही ज्योतिष्क देवोंका भी स्पर्शनक्षेत्र कहना चाहिए । विशेष बात यह
१ रन्जुकदी गुणिदवा णवण उदिसहस्सा अधियलक्खेण । तम्मझे तिवियपा वेंत देवाण होंति पुरा॥ भवणं भवणपुगणिं आवासा इय भवति तिवियप्पा । जिण मुहकमलविणिगदवेंतरपण्णत्तिणामाए ॥ रयणप्पहपुटवीए भवणाणि दीव-उवाहिउवरिम्मि । भवणपुराणिं दहगिरिपहुदीणं उवरि आवासा ॥ ति. प. पत्र १९६.
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