Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ४, ७७.] फोसणाणुगमे मण-वचिजोगिफोसणपरूवणं
[२५० एदेहि चदुगुणट्ठाणजीवेहि छुत्तखेत्तपरूवणा कदा, तधा एत्थ वि कादवा, विसेसाभावा। णवरि सासणसम्मादिट्ठि--असंजदसम्मादिट्ठासु उववादो पत्थि, उवादेण पंचमग-वचि. जोगाणं सहअगवट्ठाणलक्खणविराहा।
पमतसंजदप्पहुडि जाव सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ७७॥
एदेसिमट्ठण्हं गुणट्ठाणाणं जधा पोसणाणिओगद्दारस्स ओघम्हि तिण्णि काले अस्सिदूण परूवणा कदा, तधा एत्थ वि कादया । जदि एवं, तो सुत्ते ओघमिदि किण्ण परूविदं ? ण, तधा परूवणाए कायजोगाविणाभाविसजोगिचउबिहसमुग्धादखेत्तपडिसेहफलत्तादो ।
वर्ती जीवोरे, स्पर्शित क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहां पर भी करना चाहिए, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। विशेष बात यह है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियों में उपपादपद नहीं होता है, क्योंकि, उपपादके साथ पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगोंका सहानवस्थानलक्षण विरोध है, अर्थात् उपपादमें उक्त योग संभव नहीं हैं।
प्रमनसंयत गुणस्थानसे लेकर सोनिकाली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उक्त जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ७७ ॥
इन आठों गुणस्थानोंकी स्पर्शनानुयोगद्वारके ओघमें तीनों कालोका आश्रय करके जैसी स्पर्शनप्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहां पर भी करना चाहिए।
शंका-यदि ऐसा है, तो सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद क्यों नहीं कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उस प्रकारकी प्ररूपणा काययोगके अविनाभावी सयोगिकेवलोके चारों प्रकारके समुद्धातक्षेत्रके प्रतिषेध करनेके लिए है।
विशेषार्थ-यदि सूत्रमें 'असंखेज्जदिभागो' पदके स्थान पर 'ओघं' ऐसा पद दिया जाता तो केवल मनोयोगी और वचनयोगियोंका स्पर्शनक्षेत्र बताते समय, जो केवल काययोगके निमित्तसे ही केवलोके समुद्धात होता है जिसका कि स्पर्शनक्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक है, उसका प्रतिषेध नहीं हो पाता, अर्थात् अनिष्ट प्रसंग उपस्थित हो जाता। उसी अनिष्टापत्तिके प्रतिषेधके लिए सूत्रमें 'ओघं' पद न देकर ' असंखेज्जदिभागो' पद दिया है।
१ सयोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागः । स. सि. १, ८.
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