Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, ४, ८१. 1
फौसणांणुगमे कायजोगिफोसणपरूवणं
[२५९
एदस्स सुत्तस्स पुधारंभो किंफलो ? ण, सजोगिकेवलि - चत्तारिसमुग्धादा कायजोगविणाभाविणोति मंदमेहाविजणावबोहणफलत्तादो । एगजोगं काढूण ओघमिदि उत्ते वि ओघत्तण्णहाणुववत्तीदो कायजोगी वि चदुण्हं समुग्धादाणमत्थित्तं परिच्छिज्जदे चे, ण एस दोसो, ओघमिदि उत्ते इमाणि पदाणि अत्थि, इमाणि च णत्थि त्ति (ण) गव्वदे । जाणि संभवंति पदाणि तेसिं परूवणाओ ओघपरूवणाए तुल्ला ति एत्तियमेत्तं चेव णव्वदे । तेण पुध सुत्तारंभो कायजेोगिम्हि चउव्विहसमुग्धादाणमत्थित्तपदुप्पायणफलो त्ति ।
ओरालियका यजोगीसु मिच्छादिट्टी ओघं ॥ ८१ ॥
दव्वट्ठियपरूवणाए ओघत्तं जुज्जदे । पज्जवट्ठियपरूवणाए पुण ओघत्तं णत्थि, ओरालियजोगे णिरुद्धे विहार - वेउच्वियपदाणमट्ठ- चोद्दस भागत्ताणुवलंभादो । तदो एत्थ भेदपरूवणा करदे - सत्थाणसत्थाण- वेदण-कसाय मारणंतिय परिणदेहि तिसु वि कालेस सव्वलोगो पोसिदो । उववादो णत्थि, दोन्हं सहाणवट्ठाणलक्खणविरोहा । वट्टमाणकाले
शंका- इस सूत्र के पृथक् आरम्भ करनेका क्या फल है ?
समाधान - ऐसा नहीं कहना, क्योंकि, सयोगिकेवलीमें दंड, कपाटादि चारों समु दात काययोगके अविनाभाषी होते हैं, इस बातका मंदमेधावी जनोंको ज्ञान करानेके लिए इस सूत्र का पृथक् निर्माण किया गया है, और यही सूत्रके पृथक् निर्माणका फल है।
शंका- पूर्वसूत्र और इस सूत्रका एक योग अर्थात् एक समास करके ' ओघ ' ऐसा कहने पर भी ओघत्व - अन्यथानुपपत्तिसे काययोगी सयोगिकेवली में दंड-कपाटादि चारों समुद्धार्तोका अस्तित्व जाना जाता है, फिर पृथक् सूत्र-निर्माणकी क्या उपयोगिता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, 'ओघ' ऐसा कहनेपर भी ये अमुक विवक्षित पद होते हैं, और ये अमुक पद नहीं होते हैं, ऐसा विशेष नहीं जाना जाता है। किन्तु जो पद संभव हैं उनकी प्ररूपणाएं ओघप्ररूपणा के साथ समान होती है, इतनामात्र ही जाना जाता है । इसलिए पृथक सूत्रका आरंभ काययोगी सयोगिकेवलीमें चारों प्रकार के समुद्धातोंका अस्तित्व प्रतिपादन करनेरूप फलके लिए है ।
औदारिककाययोगी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियों का स्पर्शनक्षेत्र ओघ के समान सर्व लोक है ।। ८१ ॥
द्रव्यार्थिकनकी प्ररूपणा में तो ओघपना घटित होता है, किन्तु पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणा ओघपना घटित नहीं होता है, क्योंकि, भारिककाययोगके निरुद्ध करनेपर विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिक पके स्पर्शनका क्षेत्र आठ बटे चौदह ( ) भाग नहीं पाया जाता है । इससे यहांपर भेदप्ररूपणा की जाती है । स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय और मारणान्तिकपदपरिणत औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों ही कालोंमें सर्वलोक स्पर्श किया है। यहांपर उपपादपद नहीं है, क्योंकि, औदारिककाययोग और उपपादपद, इन दोनोंका सहानवस्थानलक्षण विरोध है । वर्तमानकाल में वैक्रियिकपदपरिणत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org