Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ४, ८८.] फोसणाणुगमे कायजोगिफोसणपखवणं पोसणाणं मूलोघपमत्तादिपरूवणाए समाणा परूवणा कादवा । णवरि सजोगिकेवलिम्हि कवाड-पदर-लोगपूरणाणि णस्थि' । तं कधं णव्वदे ? सजोगिकेवलीहि लोगस्स असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा फोसिदो त्ति सुत्तेण अणिद्दिद्वत्तादो ।
ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्टी ओघं ॥ ८८ ॥
सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादपरिणदेहि ओरालियमिस्सकायजोगिमिच्छादिट्ठीहि तिसु वि कालेमु जेण सव्वलोगो फोसिदो, तेण ओघत्तमेदेसि ण विरुज्झदे । विहारवदिसत्थाण-वेउवियपदाणमेत्थाभावा णोधत्तं जुज्जदे ? होदु णाम
क्षेत्र और स्पर्शन अनुयोगद्वारके मूलोघ प्रमत्तादि गुणस्थानोंकी प्ररूपणाके समान प्ररूपणा करना चाहिए। विशेष बात यह है कि सयोगिकेवली गुणस्थानमें कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्धात नहीं होते हैं, (क्योंकि, औदारिककाययोगकी अवस्थामें केवल एक दंडसमुद्धात ही होता है।)
शंका-यह कैसे जानते हैं कि औदारिककाययोगी सयोगिकेवलीके कपाट आदि तीन समुद्धात नहीं होते हैं ?
समाधान-'यह बात सयोगिकेवलियोंने लोकका असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है। इस सूत्रसे निर्दिष्ट नहीं की गई है। ( अतः हम जानते हैं कि औदारिककाययोगी सयोगिजिनमें कपाटादि तीन समुद्धात नहीं होते हैं।)
विशेषार्थ-औदारिककाययोगकी अवस्थामें केवल एक दंडसमुद्धात ही होता है। कपाटसमुद्धात आदि नहीं । इसका कारण यह है कि कपाटसमुद्धातमें औदारिकमिश्रकाययोग, और प्रतर तथा लोकपूरणसमुद्धातमें कार्मणकाययोग होता है, ऐसा नियम है। इसलिए यहां, औदारिककाययोगकी प्ररूपणा करते समय सयोगिकेवलीमें कपाट, प्रतर और लोकपूरणसमुद्धात नहीं होते हैं, ऐसा कहा है।
औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओषके समान सर्वलोक है ॥ ८८॥
स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने तीनों ही कालोंमें चूंकि सर्वलोक स्पर्श किया है, इसलिए ओघपना इन पदोवाले जीवोंसे विरोधको प्राप्त नहीं होता है।
शंका-औदारिकमिश्रकाययोगी जीवों में विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुदात,इन दो पदोका अभाव होनेसे ओघपना नहीं बनता है, इसलिए सूत्र में ओघ' पद नहीं देना चाहिए?
समाधान-औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके विहारवत्वस्थान और वैक्रियिकसमु
व १ ओरालं दंडदुगे कवाडजुगले य तस्स मिस्सं तु । पदरे य लोगपूरे कम्मेव य होदि णायव्यो । मो.क. ५८७.
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