Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ४, ७५.] फोसणाणुगमे जोगमग्गणाफोसणपरूवणं
[२५५ असंखेज्जगुणो, मारणंतिय-उववादपदेहि सबलोगो पोसिदो त्ति पंचिंदियअपज्जत्ताणं परूवणा कदा, तधा एत्थ वि कायव्वा ।
एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि पंचवचिजोगीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ७४ ॥
एवं सुत्तं वट्टमाणकालमस्सिदूण द्विदमिदि एदस्स परूवणं कीरमाणे जधा खेचाणिओगद्दारे पंचमण-वचिजोगिमिच्छादिट्ठीणं परूवणा कदा, तथा एत्थ वि मंदबुद्धिसिस्ससंभालणटुं परूवणा कादया ।
अह चोदसभागा देसूणा, सव्वलोगो वा ॥ ७५॥
पंचमण-पंचवचिजोगिमिच्छादिट्ठीहि सत्थाणसत्थाणपरिणदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । एत्थ सत्थाणखेत्ताणयणविधाणं जाणिय कादव्यं । एसो ' वा ' सद्दसूचिदत्थो । विहार
भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, तथा मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है, इसप्रकारसे जैसी पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहांपर भी स्पर्शनप्ररूपणा करना चाहिए।
इसप्रकार कायमागेणा समाप्त हुई। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥७॥
यह सूत्र वर्तमानकालका आश्रय करके स्थित है, इसलिए इसकी प्ररूपणा करनेपर जैसी क्षेत्रानुयोगद्वारमें पांवों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहां पर भी मंदबुद्धि शिष्योंके संभालने के लिए स्पर्शनप्ररूपण करना चाहिए।
पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ७५ ॥
स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्याष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर स्वस्थानस्वस्थान क्षेत्रके निकालनेका विधान जान करके करना चाहिए । यह 'चा' शब्दसे सूचित अर्थ है । विहार
- १ योगानुवादेन वाङ्मानसयोगिमिमियादृष्टिमिलोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा वा देशोनाः सर्वलोको वा । स. सि. १,८.
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