Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
२५४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ४, ७२. तिण्हं लोगाणमसंखेञ्जदिभागो, तिरियलोगादो संखेजगुणो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । मारणंतिय-उववादपरिणदेहि तिसु वि कालेसु सव्वलोगो पोसिदो।
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघ ॥ ७२ ॥
वट्टमाणकालमदीदकालं च अस्सिदूण जधा ओघम्हि सासणादिगुणाणं परूवणा कदा, तधा एत्थ वि कादव्वा । णवरि मिच्छाइट्ठीणं पंचिंदियमिच्छादिट्ठिभंगो, मारणंतियउववादपदं मोत्तूण अण्णत्थ सव्वलोगत्ताभावा ।
तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्ताणं भंगो ॥ ७३ ॥
वट्टमाणकालमस्सिदूण जधा पंचिंदियअपज्जत्ताणं परूवणा कदा, तधा एत्थ वि वमाणकालमस्सिदण परूवणा कादव्वा । जधा अदीदकालमस्सिदण सत्थाण-वेदणकसायपदेहि तिहं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो
लोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणा और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने तीनों ही कालों में सर्वलोक स्पर्श किया है।
त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान
धर्तमानकाल और अतीतकालको आश्रय करके जैसी ओघ स्पर्शनप्ररूपणामें सासादन आदि गुणस्थानोंकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहांपर भी करना चाहिए । विशेष बात यह है कि उसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा पंचेन्द्रियमिथ्यादृष्टि जीवोंके समान जानना चाहिए, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदको छोड़कर अन्यत्र अर्थात् शेष पदोंमें सर्वलोकप्रमाण स्पर्शनक्षेत्रका अभाव है।
त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्त जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्त जीवोंके समान लोकका असंख्यातवां भाग है ॥७३॥
। वर्तमानकालका आश्रय करके जिस प्रकारसे पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहांपर भी वर्तमानकालका आश्रय करके स्पर्शनप्ररूपणा करना चाहिए। तथा जैसे अतीतकालका आश्रय करके स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धात. परिणत जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्याता
-
त्रसकायिकाना पंचेन्द्रियवत्स्पर्शनम् । स. सि. १,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org