Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१८६ ]
क्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ४, १६.
सास सम्माइट्ठि-सत्थाण सत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेदण - कसाय वेउच्चिय-मारणंतिय समुग्धादगद खेत्त परूवणा वट्टमाणकाले खेत्तसमाणा । सत्थाणसत्थाण-विहारवादसत्थाणवेदण-कसाय - वेउव्वियसमुग्धादगदेहि सासणसम्मादिट्ठीहि अदीदकाले' चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एत्थ पज्जवट्टियपरूवणा मिच्छा
विशेषार्थ - यहां धवलाकारने लोककी वर्तुलाकार मान्यता के विरुद्ध पांच हेतु दिये हैं। जो इस प्रकार हैं
(१) प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि जीवोंका मारणान्तिकक्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग कहा गया है । किन्तु यदि लोकको आयतचतुरस्र न मानकर वर्तुलाकार माना जावे तो वह क्षेत्र तिर्यग्लोकसे छीन नहीं किन्तु साधिक हो जाता है । (देखो पृ. १८४ )
(२) परिकर्म में राजु, जगश्रेणी, जगप्रतर और लोकका सम्बन्ध बतलाकर घनलोकको ३४३ राजुप्रमाण सिद्ध किया है। यह प्रमाण व व्यवस्था वर्तुलाकार लोकमें नहीं पाई जाती । (३) खुदाबंध में पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंचपर्याप्त, पंचेन्द्रियतिर्येच योनिमती, ज्योतिषी और व्यंतर देवोंके अवहारकालोंको कृतयुग्मराशि अर्थात् चारसे पूर्णतः भाजित होनेवाला कहा है, और इनसे जगप्रतर निरवशेष भाजित हो जाता है, जिससे जगप्रतर भी कृतयुग्मराशि सिद्ध हुआ । किन्तु वर्तुलाकार लोककी मान्यता में जगप्रतर अकृतयुग्मरूप पड़ेगा जिससे उक्त अवहारकालद्वारा वह पूर्णतः भाजित नहीं होनेसे वे पंचेन्द्रिय तिर्यच, पर्याप्त, योनिमती आदि राशियां सछेद हो जाती हैं।
(४) द्रव्यानुयोगद्वार के व्याख्यानमें गुणस्थानों व मार्गणास्थानोंके भीतर जीवोंका प्रमाण उपरिमविकल्प और अधस्तनविकल्पों द्वारा भी समझाया गया है। किन्तु यदि लोकको उक्त प्रकार वर्तुलाकार मान लिया जाय तो उसमें वर्ग व वर्गमूल प्रमाण नहीं प्राप्त होनेसे वे विकल्प बन ही नहीं सकेंगे । (देखो तीसरा भाग, प्रस्तावना पृ. ४८ )
(५) यदि यह कहा जाय कि तीन सौ तेतालीस राजुप्रमाणवाले लोकको द्रव्याधार लोक न मानकर केवल कल्पित उपमालोक ही माना जाय, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उपमेयके अभाव में उपमाका अस्तित्व ही नहीं रहता है । तथा अंगुल, पल्योपम, सागरोपम आदि जो अन्य उपमाप्रमाण माने गये हैं उन सबके आधाररूप उपमेय प्राप्त हैं । अतः प्रमाण लोकको भी काल्पनिक न मानकर सोपमेय ही स्वीकार करना आवश्यक है ।
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकसमुद्घातगत सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंके वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्रकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैकिकिस मुद्धातगत सासादन सम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । यहां पर
१ अ-क प्रत्योः ' अदीदकाले ' इति पाठो नास्ति ।
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