Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२२० ]
छक्खडागमे जीवाणं
[ १, ४, ३८.
ज्जदिभाग पहाणत्तादो । तम्हा एवंविहणियमवसेण तलफोसणमेत्तस्सेव संगहो कायन्त्रो । सोववादिणो देवसासणा मूलसरीरं पविसिय कालं करेंति त्ति भणताणमभिप्पायेण तिरियलोयस्स संखेज्जदिभागमेत्तमेदं फोसणं समत्थेदव्वं । तिरिक्खसासणेसु मणुस्मे सुपज्ज माणेसु वितिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो फोसणमुवलब्भइ, तिरिक्खसासणसम्माइट्ठी चउग्गईसुप्पज्जमाणाणं तिरिक्ख भवाभिमुहसेस गइजीवाणं च तिरिच्छं गंतूग विग्गहं करिय उत्पत्तिदंसणादो । अतएव च ' तिरोऽञ्चन्तीति तिर्यञ्चः ' । एदेसिमेवंविहा गई अस्थि ति कुदो वदे ? देवसासणोववादस्स पंच- चोइस भागपोसण परूवणष्णहाणुत्रवती दो । तदा ण पुव्वत्तदोसप्पसंगो ति सद्दयव्वं ।
सम्मामिच्छाइट्टि पहुडि जाव अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ३८ ॥
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सम्मामिच्छाद्वीणं वट्टमाणकाले सगसन्पदेहि खेत्तमंगो । सत्थाणपद ट्ठिएहि चन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो पोसिदो । विहारवदि
भागकी ही प्रधानता है। इसलिए इसप्रकार के नियमके वशसे मेरुके तलभाग के स्पर्शनमात्रका ही संग्रह करना चाहिए। मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले देव सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मूलशरीर में प्रवेश करके मरण करते हैं, ऐसा कहने वाले आचार्योंके अभिप्राय से तिर्यग्लोकका संख्यात भागमात्र स्पर्शन होता है, ऐसा समर्थन करना चाहिए। तथा तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियों में और मनुष्यों में भी उत्पन्न होने वाले जीवोंमें तिर्यग्लोक संख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है, क्योंकि, चारों गतियों में उत्पन्न होने वाले तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टियों के और तिर्यचभव के अभिमुख शेष गतिके जीवोंके तिरछे जाकर और विग्रह करके उत्पत्ति देखी जाती है । और इसीलिए वे ' तिरछे जाते हैं अतएव तिर्यच हैं' ऐसी व्युत्पत्ति की गई है ।
शंका- इन तिर्यचौकी इस प्रकारकी तिरछी गति होती है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - अन्यथा देव सासनसम्यग्दृष्टियोंके उपपादसम्बन्धी पांच बटे चौदह ( ) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र की प्ररूपणा नहीं हो सकती थी । इसलिए पूर्वोक्त दोष नहीं प्राप्त होता है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिए ।
मनुष्यों में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थ न तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ३८ ॥
सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्यों का वर्तमानकालमें स्पर्शनक्षेत्र अपने सर्व पदोंकी अपेक्षा क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । स्वस्थानस्वस्थान पदस्थित उक्त गुणस्थानवर्ती मनुष्योंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मानुषक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श १. सम्यग्मिथ्यादृष्ट्यादीनामयोग केवल्यन्ताना क्षेत्रवत्स्पर्शनम् । स. सि. १,८०
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