Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२०० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ४, २५.
क दो रूवे ठविय' अद्धिय पुध ठविय उवरि एगरूवं दादव्वं । पुणो तं सोलसे हि गुणिय 'रूपेषु गुणमर्थेषु वर्गणं' एदेण अज्जाखंडेण लद्धविसदछप्पण्णेसु रूवूणेसु आदि - संगुणेसु रूवूणगुणगारेण भजिदेसु जं लद्धं तं दुगुणिय पंच अवणिदे पक्खे सलागसंकलणा होदि । कधं पंच समुप्पण्णा ९ पुव्त्रपक्खित्तएगादिचदुगुणकमेण गदासि मेलाविदे अवणयणरासी आगच्छदि । एदाहि पुच्वुत्त संकलण सलागाहि लवणसमुद्दखेत्तफलं गुणिदे लवण- कालोदयसमुद्दाणं खेत्तफलं होदि । तिन्हं समुद्दाणं खेत्तफलसंकलणा बुच्चदे - तिसु रूवे एगरूवमवणिय पुध दुविय सेसमद्धिय रुवस्सुवरि वग्गणं ठविय तस्सुवरि रूवं ठविय हेट्ठिम उवरिमरुवाणि सोलसेहि गुणिय 'रूपेषु गुणमर्थेषु वर्गणं' एदेण अज्जा
रूपोंको स्थापितकर आधा करके पृथक् स्थापितकर ऊपर एक रूप दे देना चाहिए । पुनः उसे सोलह से गुणितकर 'रूपोंमें गुणा और अर्थों में वर्गणा' इस आर्याखंड से प्राप्त दोसौ छप्पन रूपों में से एक कम कर आदिले संगुणित करनेपर तथा एक कम गुणकारसे भाग देने पर जो राशि लब्ध हो उसे दुगुनाकर उसमेंसे पांच घटा देनेपर एक पक्षमें अर्थात् केवल समुद्रसम्बन्धी शलाकाओं की संकलना हो जाती है।
उदाहरण -- लवणोदक और कालोदककी गुणकारशलाका ओंका संकलन - कालोदककी शलाका २३ १ x १६, १x १६; १६ x १६ = २५६६
/ २५६ -
= १७;
१७ x २ = ३४; ३४ - ५ = २९
2) - १
२५५ १५
शंका-यांपर पांच कैसे उत्पन्न हुए ?
समाधान - पू एकको आदि लेकर चतुर्गुणितक्रमसे वृद्धिंगत राशिको मिला देने पर अपनयनराशि आ जाती है ।
उदाहरण - पांचकी उत्पत्ति - १+४ =५ अपनयनराशि ( दो समुद्रों की अपनयनशलाका, 1 इन पूर्वोक्त संकलनशलाकाओं से लवणसमुद्रसम्बन्धी क्षेत्रफलको गुणित करने पर लवणसमुद्र और कालोदकसमुद्र, इन दोनोंका क्षेत्रफल हो जाता है ।
उदाहरण - लवणसमुद्रका क्षेत्रफल - ७९०५६९४१५० × २४;
लवणोदक और कालोदककी संकलित गुणकारशलाका २९;
७९०५६९४१५० × २४ X २९ लवणोदक और कालोदकका संकलित क्षेत्रफल.
अब तीन समुद्रोंके क्षेत्रफलका संकलन कहते हैं- तीन रूपों में से एक रूपको घटाकर उसे पृथक् स्थापित करे । पुनः शेषको आधा कर रूपके ऊपर वर्गणराशिको स्थापितकर और उसके ऊपर रूपको स्थापितकर अधस्तन और उपरिम रूपोंको सोलह से गुणाकर
१ प्रतिषु ' विय' इति पाठः ।
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२ प्रतिषु सुष्णं ' इति पाठः ।
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