Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२१६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ४, ३४ संभवो होदि, तत्थ सव्वत्थ वि पज्जत्तेहिंतो अपज्जत्ता असंखज्जगुणा होति । तम्हा संखेज्जंगुलबाहल्लं तिरियपदरमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेतं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तसत्थाण-वेदण-कसायखेत्तं होदि । 'वा' सट्ठो गदो । मारणंतिय-उववादगदेहि सबलोगो पोसिदो, सव्वत्थ गमणागमण पडि विरोहाभावा ।
मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छादिट्ठीहि केव डियं खेत्त पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ३४ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो खेत्ताणिओगद्दारे परूविदो त्ति णेह परूविज्जदे । सव्वलोगो वा ॥३५॥
एत्थ ताव 'वा' सद्दट्ठो उच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायवेउव्यियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो पोसिदो, तीदाणागदकालेसु वेरियदेवसंबंधेण वि माणुसोत्तरसेलादो परदो गमणाभावा । माणुसखेत्तस्स पुण संखेज्जदिभागो
संभावना होती है वहां पर सर्वत्र ही पर्याप्त जीवोंसे अपर्याप्त जीव असंख्यातगुणे होते हैं। अतएव संख्यात अंगुल बाइल्यवाले तिर्यकप्रतरके उनचास खंड करके प्रतराकारसे स्थापित करने पर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त जीवोंका स्वस्थान वेदना और कषायसमुद्धातगत क्षेत्र होता है। इस प्रकारसे 'वा' शब्दका अर्थ समाप्त हुआ।
मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्त जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, उनके सर्व लोकमें गमनागमनके प्रति विरोधका अभाव है।
मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ३४ ॥
इस सूत्रका अर्थ क्षेत्रानुयोगद्वारमें प्ररूपण किया जा चुका है, इसलिए यहांपर पुनः प्ररूपण नहीं किया जाता है।
मिथ्यादृष्टि मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ३५ ॥
अब यहांपर पहिले 'वा' शब्दका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातसे परिणत उपर्युक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकों का असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है, क्योंकि, अतीत और अनागतकालमें वैरी देवोंके सम्बन्धसे भी मानुषोत्तर शैलसे परे मनुष्यों के गमनका अभाव है। किन्तु मनुष्यक्षेत्रका
१ मनुष्यगतौ मनुष्यर्मियादृष्टिमिर्लोकस्यासंख्येयभागः सर्वलोको वा स्पृष्टः। स. सि. १,८.
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